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मौर्योत्तर काल 🔥

 विषय सूची


मौर्योत्तर काल (POST-MAURYA PERIOD) 

ब्राह्मण साम्राज्य (BRAHMIN EMPIRE)

विदेशी आक्रमण 

कलिंग राज खारवेल (Kalinga King Kharvell)

मौर्योत्तरकालीन कला-संस्कृति 

कुषाणकालीन साहित्य 

Audio सुनें

मौर्योत्तर कालीन प्रमुख अभिलेख 

मौर्योत्तर कालीन प्रमुख रचनाएं

गांधार कला एवं मथुरा कला में अंतर

मौर्योत्तर कालीन प्रमुख बंदरगाह 

मौर्योत्तर काल (POST-MAURYA PERIOD) 

187 ई०पू० से 240A.D तक के काल में भारत की राजनीतिक एकता खण्डित रही तथा यह काल मौर्योत्तर काल के नाम से जाना गया। 

इस काल में मगध सहित भारत के विभिन्न हिस्सों में ब्राह्मण साम्राज्यों (शुंग, कण्व, सातवाहन एवं वाकाटक) का उदय हुआ तथा विदेशी आक्रमण हुए। 

इस काल में सशक्त केंद्रीय सत्ता के अभाव में क्षेत्रीय रोजा स्वतंत्र होने लगे, जिनमें कलिंग का राजा खारवेल प्रमुख था।

ब्राह्मण साम्राज्य (BRAHMIN EMPIRE)

शुंग वंश (Sunga Dynasty)

ई०पू० 189 में पुष्यमित्र शुंग ने मगध पर शुंग वंश के शासन की स्थापना की एवं ई०पू० 149 में मरने से पूर्व 36 वर्षों तक शासन किया। 

पुष्यमित्र शुंग अंतिम मौर्य शासक बृहद्रथ का सेनापति था तथा उसने उसकी हत्या कर शासन पर

कब्जा किया। 

कालीदास के मालविकाग्निमित्रम में पुष्यमित्र शुंग को ‘कश्यप गोत्र’ का ब्राह्मण माना गया है।

इतिहासकार तारानाथ तथा पाणिनि ने भी उसके ब्राह्मण होने की पुष्टि की है। 

पाटलिपुत्र से दूर होने के कारण मगध के एक प्रांत अवन्ती पर नियंत्रण करने में कठिनाई के कारण पुष्यमित्र शुंग ने विदिशा को अपनी दूसरी राजधानी बनाया। 

पुष्यमित्र शुंग ने एक सैन्य-क्रांति द्वारा सत्ता हथियाने के समय तथा अपने अंतिम दिनों में (कुल दो) अश्वमेध यज्ञ किये। 

अश्वमेध घोड़े को सिंधु नदी के तट पर यवनों द्वारा पकड़ लिये जाने के कारण पुष्यमित्र के नाती बसुमित्र के नेतृत्व में शुंग सेना ने यूनानियों को परास्त कर दिया। 

पुष्यमित्र शुंग ने साम्राज्य-विस्तार के तहत विदर्भ (शासक-यज्ञसेन) को जीत लिया। 

कालीदास के नाटक ‘मालविकाग्निमित्रम्’ में विदर्भ की राजकुमारी मालविका एवं अग्निमित्र (पुष्यमित्र का पुत्र) के प्रेम-संबंध एवं शुंगों द्वारा ‘विदर्भ की जीत’ का विवरण दिया गया है। 

बौद्ध साहित्य दिव्यदान में पुष्यमित्र को बौद्धों पर अत्याचार करने वाला बताया गया है। पुष्यमित्र शुंग ने भारहुत एवं सांची के स्तूपों का पुनर्निर्माण कराया। 

शुंग वंश का अंतिम शासक देवभूति था, जिसकी हत्या 73 ई०पू० में उसके ब्राह्मण मंत्री वासुदेव ने कर दी तथा इसी के साथ इस वंश का शासन समाप्त हो गया। 

शुंगकाल में भागवत् सम्प्रदाय का पुनरुत्थान हुआ। इस काल में हिन्दुओं के देवमंडल में वासुदेव कृष्ण की प्रधानता स्थापित हुई। 

इस काल में ब्राह्मण धर्म ‘भागवत धर्म’ के नाम से प्रसिद्ध था। इसी काल में ‘पतञ्जलि’ ने ‘पाणिनि’ के अष्टध्यायी पर टीका ग्रंथ महाभाष्य लिखी। 

वैदिक धर्मशास्त्र के सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्मृति-ग्रंथ मनुस्मृति की रचना इसी काल में हुई। विदिशा के शिल्पियों ने इसी काल में साँची-स्तूप के द्वारों का निर्माण किया। 

भाजा के विहार, बोध गया की वेष्टिनी तथा बेसनगर में गरुड़ध्वज स्तंभ आदि शुंग-कालीन कला के उत्कृष्ट नमूने हैं। 

कण्व वंश (Kanav Dynasty) 

इस वंश की स्थापना वासुवेद ने 73 ई०पू० में की। 

इस वंश का शासन मात्र 45 वर्ष रहा, जिसमें 4 शासकों ने राज्य किया। 

इस वंश का तीसरा शासक नारायण कण्व एक अयोग्य एवं निर्बल शासक था। 

इसके कार्यकाल में मगध साम्राज्य का विस्तार मात्र बिहार एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों तक रह गया। 

कण्व वंश ने ब्राह्मण धर्म की पुनर्स्थापना में भारी योगदान दिया। 

27 ई०पू० में इस वंश के अंतिम शासक सुशर्मा की हत्या कर उसके सेनापति सिमुक ने इस वंश के शासन का अंत कर दिया। 

सातवाहन वंश 

दक्कन में महाराष्ट्र एवं आंध्रप्रदेश के अधिकांश भागों को मिलाकर ई०पू० 27 में सिमुक ने सातवाहन वंश के शासन की स्थापना की। 

यह राज्य अत्यंत शक्तिशाली था तथा इसे आंध्र भी कहा जाता है। । 

इस राज्य की राजधानी प्रतिष्ठान (आधुनिक आंध्र प्रदेश के औरंगाबाद जिले में) थी। 

इस वंश के संस्थापक सिमुक ने 12 ई० तक राज किया। 

गौतमीपुत्र शतकर्णि, वशिष्ठ पुत्र पुलवामी एवं यज्ञ श्री शतकर्णि आदि इस वंश के प्रमुख प्रसिद्ध शासक हुए।

गौतमीपुत्र शातकर्णि को पश्चिम का स्वामी’ कहा गया है। 

गौतमीपुत्र ने दो अश्वमेध एवं एक राजसूय यज्ञ किये। 

गौतमीपुत्र शातकर्णि ने अपने शासनकाल के ’18वें’ वर्ष में नासिक में एक गुफा तपस्वियों को प्रदान की। 

गौतमीपुत्र शतकर्णि ने अपने शासन के 24वें वर्ष में ब्राह्मणों को भूमि-अनुदान देने की प्रथा आरंभ की। 

सातवाहन समाज मातृसत्तात्मक था तथा उनकी भाषा प्राकृत एवं लिपि ब्राह्मी थी। 

प्रसिद्ध साहित्यकार हाल एवं गुणाढ्य इसी काल में थे। 

हाल ने गाथा सप्तशतक एवं गुणाढ्य ने बृहत्कथा जैसे ग्रंथों की रचना की। 

सातवाहन शासकों ने सीसा, चाँदी, ताँबा एवं पोटीन के सिक्के चलाये। 

कार्ले का चैत्य, अजंता-एलोरा गुफाओं का निर्माण एवं अमरावती कला का विकास कला के क्षेत्र में सातवहानों के उल्लेखनीय योगदान हैं।

गौतमीपुत्र शतकर्णि की माता गौतमी वलश्री के नासिक अभिलेख में यह उल्लिखित है कि उसके पुत्र के घोड़े ‘तीन समुद्रों का पानी पीते थे।

‘ गुनाढ्य रचित ‘बृहत्कथा’ से बाद में संस्कृत भाषा में कथा सरितसागर एवं कथाकोष नामक प्रसिद्ध ग्रंथों की रचना हुई। 

वाकाटक वंश 

सातवाहनों के पतन एवं 6ठी’ शताबदी के मध्य में चालुक्यों के उदय होने तक दक्कन में वाकाटक ही मुख्य शक्ति थे। 

वाकाटक शक्ति के संस्थापक विंध्यशक्ति के पूर्वजों एवं उनके उद्गम स्थान के विषय में कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है। 

विंध्यशक्ति को विष्णुवृद्धि गोत्र का ब्राह्मण माना जाता है।

वाकाटक शासन तीसरी शताब्दी के अंत में प्रारंभ हुआ एवं पाँचवीं शताब्दी के अंत तक चला। 

पुराणों के अनुसार विंध्यशक्ति के पुत्र प्रवरसेन ने ‘अश्वमेध यज्ञ’ किया एवं उसके कार्यकाल में वाकाटक साम्राज्य बुंदेलखंड से लेकर दक्षिण में हैदराबाद तक विस्तृत था। 

वाकाटक शासक साहित्य एवं कला के प्रेमी थे, प्रवरसेन ने एक प्रसिद्ध कृति सेतुबंध की रचना की।


 

हिन्द-यूनानी सिक्के यूनानियों से संपर्क होने से पूर्व भारतीय आहत मुदाएँ (Punch marked coins) प्रयोग में लाते थे। उनपर कोई मुद्रालेख नहीं होता था ! यवनों द्वारा ऐसे सिक्के प्रचलित किये गये जिनपर एक ओर राजाओं की आकृति और दूसरी और किसी देवता की मूर्ति या कुछ अन्य चिह्न उत्कीर्ण थे। इस पद्धति को भारतीय शासकों ने भी अपनाया। भारत में सोने के सिक्के जारी करने वाले प्रथम शासक वंश हिंद-यूनानी थे।


विदेशी आक्रमण 

हिन्द यूनानी (indo-greek)

सिकंदर ने अपने पीछे एक विशाल साम्राज्य छोड़ा, जिसमें मैसेडोनिया, सीरिया, बैक्ट्रिया, पार्थिया, अफगानिस्तान एवं पश्चिमोत्तर भारत के कुछ प्रदेश शामिल थे ! इस साम्राज्य का काफी बड़ा भाग सेल्युकस के अधीन रहा। 

ई०पू० 250 में बैक्ट्रिया के गवर्नर डियोडोटस एवं पार्थिया के गवर्नर औरेक्सस ने अपने-आप को स्वतंत्र घोषित कर दिया। 

डियोडोटस के वंश के एक शासक डेमेट्रियस-D ने ई०पू० 183 में मौर्योत्तर काल का प्रथम यूनानी आक्रमण किया। 

डेमेट्रियस ने पंजाब का एक बड़ा हिस्सा जीत लिया एवं साकल को अपनी राजधानी बनायी।

किंतु डेमेट्रियस जिस वक्त भारत में व्यस्त था, स्वयं बैक्ट्रिया में यूक्रेटाड्स के नेतृत्व में विद्रोह हो गया एवं उसे बैक्ट्रिया से हाथ धोना पड़ा। उसका शासन पूर्वी पंजाब एवं सिंघ पर ही रहा गया। 

यूक्रेटाइड्स भी भारत की ओर बढ़ा और कुछ भागों को जीतकर उसने तक्षशिला को अपनी राजधानी बनाया।

इस प्रकार भारत में यवन साम्राज्य’ अब दो कुलों डेमेट्रियस एवं यूक्रेटाइड्स के वंशों में बंट गया। 

सबसे प्रसिद्ध यवन शासक मिनान्डर (ई०पू० 160-120) था, जो बौद्ध साहित्य में मिलिन्द के नाम से प्रसिद्ध है। 

पेरिप्लस ऑफ द एरिथ्रियन सी के उल्लेखानुसार मिनांडर के सिक्के भड़ौंच के बाजारों में खूब प्रचलित थे। 

इसके अलावा काबुल से मथुरा बुंदेलखंड तक से मिनांडर के सिक्के प्राप्त हुए हैं। 

बौद्ध ग्रंथ मिलिन्दपान्हो के अनुसार मिनान्डर ने भिक्षु नागसेन से बौद्ध धर्म में दीक्षा ली। मिनांडर की राजधानी साकल शिक्षा का प्रसिद्ध केंद्र थी और वैभव एवं ऐश्वर्य में पाटलिपुत्र से समानता रखती थी। 

यूनानियों के शासन का अंत सीथियनों (शकों) द्वारा किया गया। । 

गार्गी संहिता के अनुसार ‘ज्योतिष’ के क्षेत्र में भारत यूनान का ऋणी है। 

भारतीयों ने यूनानियों से ही कैलेंडर प्राप्त किया। 

तक्षशिला के यवन राजा एण्टियालकिडास के राजदूत हेलियोडोरस ने (जो कि भागवत् धर्म का अनुयायी था) देवों के देव वसुदेव (विष्णु के अवतार ‘कृष्ण’) का बेसनगर (विदिशा) में एक गरुड़ध्वज स्थापित किया। 

हिन्द-यूनानियों ने उत्तर-पश्चिम में यूनान की प्राचीन कला हेलिनिस्टिक आर्ट का खूब प्रचलन किया। भारत की गंधार-कला शैली पर उपरोक्त की स्पष्ट छाप देखी जा सकती है।

हिन्द-पार्थियन (Indo-Parthian)

ई०पू० पहली शती के अंत में ‘पार्थियन’ नामों वाले कुछ शासक पश्चिमोत्तर भारत पर राज कर

रहे थे। इन्हें भारतीय स्रोतों में पहलव कहा गया है।

पहलव शक्ति का वास्तविक संस्थापक मिथेडेट्स-1 था जो कि यूक्रेटाइड्स का समकालीन था। 

भारत में पहला पार्थियन शासक माउस (Maues) था, जिसने ई०पू० 90 से ई०पू० 70 तक राज किया।

इस वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासकं गोंडोफर्निस (गुन्दफर्न) था जिसने 20-41 ई० के दौरान शासन किया।

65 ई० के हजारा जिले के पंजतर अभिलेख एवं 79 ई० के तक्षशिला अभिलेख के अनुसार कुषाणों ने भारत में हिन्द-पार्थियन शासन का अंत किया। 

शक (Shakas)

शकों का मूल निवास-स्थान मध्य एशिया की सरदारिया नदी का तट था। 

ई०पू० 165 में शकों का कबीला ‘उत्तर-पश्चिम चीन’ में निवास करने बाले एक अन्य कबीले यू-ची द्वारा अपने मूल स्थान से खदेड़ दिया गया। 

शकों ने इसके बाद बैक्टिया. पार्थिया आदि पर आक्रमण किया। शक आगे बढ़े एवं ‘हिंद-पार्थियन’ से उनका संघर्ष हुआ। 

भारत में शक शासक स्वयं को क्षत्रप कहते थे। 

शक शासक भारत में दो शाखाओं उत्तरी क्षत्रप (तक्षशिला एवं मथुरा) तथा पश्चिमी क्षत्रप (नासिक एवं उज्जैन) में बंटे थे। 

उज्जैन के एक स्थानीय राजा द्वारा शकों को 58 ई०पू० में पराजित कर खदेड़ दिया गया तथा उसके द्वारा विक्रमादित्य की उपाधि धारण की गई। 

उपर्युक्त के पश्चात भारतीय इतिहास में ‘विक्रमादित्य’ एक लोकप्रिय उपाधि हो गई एवं कम से कम 14 शासकों ने यह उपाधि धारण की। 

उज्जैन के शक क्षत्रपों में चष्टन सर्वाधिक प्रसिद्ध है। 

‘विक्रमादित्य द्वारा शकों पर विजय की स्मृति में 57 ई०पू० में विक्रम संवत् चलाया गया।

शक वंश का सबसे प्रतापी शासक रूद्रदामन (130-150 ई०) था।

रुद्रदामन के सिक्कों एवं जूनागढ़ अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसने महाक्षत्रप की उपाधि धारण की थी। 

रूद्रदामन ने कठियावाड़ की सुदर्शन झील का पुनर्निर्माण करवाया। 

चौथी शताब्दी ई० के अंत में गुप्त सम्राट चंद्रगुप्त-II विक्रमादित्य ने मालवा एवं काठियावाड़ को जीतकर शकों की सत्ता समाप्त कर दी। 

भारत की जनसंख्या में उपलब्ध “सिथी-द्रविड़ अंश” शकों एवं भारतीयों के मिश्रण का ही परिणाम है तथा समाज में शक-द्वीपीय ब्राह्मणों की एक शाखा पायी जाती है। 

रूद्र दामन संस्कृत भाषा और अलंकार शास्त्र का प्रकांड पंडित था, उसने संस्कृत भाषा के पहले नाटक की रचना कराई। 

कुषाण (Kushanas)

द्वितीय शताब्दी ई०पू० में चीन के सीमांत प्रदेशों में रहने वाली यू-ची जनजाति को एक अन्य बर्बर जनजाति हूण ने खदेड़ दिया। 

यू-ची ने मध्य एशिया में शरण ली। कुछ समय पश्चात यू-ची का 5 शाखाओं में विभाजन हो गया। इन्हीं शाखाओं में एक का नाम कुषाण था। 

कालांतर में कुषाणों ने यू-ची की शेष शाखाओं पर विजय प्राप्त कर ली। कुजुल कडफिसस कुषाण वंश का प्रथम शासक था। 

उसने अफगानिस्तान और तक्षशिला के आस-पास के भू-भागों पर कुषाण साम्राज्य की सुदृढ़ नींव डाली। 

भारत के आंतरिक भाग में कुषाण साम्राज्य को संगठित करने का श्रेय इस वंश के अगले शासक विम कडफिसस को प्राप्त है। 

उसने कश्मीर, पंजाब एवं सिंध आदि राज्यों पर अधिकार जमाया। इस वंश का सबसे महत्वपूर्ण शासक कनिष्क था जो 78 ई० में गद्दी पर बैठा। 

कनिष्क ने 78 ई० में शक संवत् का प्रतिपादन किया। वर्तमान में भी भारत सरकार द्वारा इसे ही प्रयोग में लाया जाता है। 

कनिष्क ने अपने राज्य का विस्तार मगध तक किया। 

कनिष्क के साम्राज्य में अफगानिस्तान, सिंध का भाग, बैक्ट्रिया एवं पार्थिया के प्रदेश सम्मिलित थे। 

कनिष्क ने कश्मीर को जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लिया तथा एक नये नगर कनिष्कपुर की स्थापना की। 

कनिष्क का सबसे प्रसिद्ध युद्ध चीन के शासक के साथ हुआ एवं अंतत: वह मध्य एशिया में काश्गर, यारकंद एवं खोतन आदि प्रदेशों पर अधिकार करने में सफल रहा।

कनिष्क ने पुरुषापुर (पेशावर) को अपनी राजधानी बनाया। मथुरा कनिष्क की द्वितीय राजधानी थी। 

कनिष्क की प्रारंभिक मुद्राओं पर यूनानी देवता हेलियोज (सूर्य) तथा भया (चंद्रमा) के चित्र अंकित हैं। वह बौद्ध धर्म के महायान सम्प्रदाय का अनुयायी था। 

कनिष्क ने अपने राजकवि एवं बौद्ध विद्वान अश्वघोष (जिसे वह पाटलिपुत्र से लाया था) से बौद्ध धर्म में दीक्षा ली। 

कनिष्क ने अपने शासन काल में कश्मीर के कुंडलवन में चतुर्थ बौद्ध संगीति का आयोजन करवाया। 

तिब्बती लेखक तारानाथ के अनुसार चतुर्थ बौद्ध संगीति में बौद्ध धर्म के 18 संप्रदायों के विवादों का निपटारा हुआ। 

कनिष्क की राजसभा में वसुमित्र एवं अश्वघोष आदि बौद्ध दार्शनिक थे। 

नागार्जुन जैसे प्रकांड पंडित एवं राज चिकित्सक चरक भी कनिष्क की राजसभा के रत्न थे। 

मंथर जैसा बुद्धिमान राजनीतिज्ञ कनिष्क का मंत्री एवं अजेसिलास (यूनानी) उसका इंजिनियर था। 

कुषाण वंश का अंतिम शासक वासुदेव था। 

कुषाण वंश ने भारतीय इतिहास में स्वर्ण की सर्वाधिक शुद्धता वाले सिक्के चलाये। 

कनिष्क ने तक्षशिला के पास सिरसुख नामक एक नये नगर की स्थापना की।

कलिंग राज खारवेल (Kalinga King Kharvell)

प्राचीन भारत में गंजाम एवं पुरी जिले, कटक के कुछ हिस्से तथा उत्तर-पश्चिम के कुछ प्रदेशों में कलिंग का राज्य विस्तृत था। कभी-कभी दक्षिण के तेलुगु भाषी क्षेत्र भी इसमें शामिल हो जाते थे। 

अशोक के निधन के तुरंत बाद यह राज्य स्वतंत्र हो गया एवं चेदी वंशीय ब्राह्मणों का शासन कायम हुआ। 

चेदी वंश का सर्वाधिक विख्यात शासक खारवेल था। राजा खारवेल के संबंध में जानकारी उदयगिरि (भुवनेश्वर के समीप) पहाड़ी में स्थित हाथीगुम्फा अभिलेख से होती है। 

राजा खारवेल जैन धर्म का अनुयायी था तथा उसे भिक्षुराज भी कहा गया है।

मौर्योत्तरकालीन कला-संस्कृति 

बौद्ध-ग्रंथ महावस्तु के अनुसार राजगृह में 36 प्रकार के शिल्पी रहते थे।

मिलिन्द पान्हो में जिन 75 व्यवसायों का विवरण दिया गया है, उनमें से 60 शिल्प से संबंधित हैं। 

इस काल में कुषाणों ने गंधार कला-शैली का विकास किया। 

इस काल में मथुरा मूर्तिनिर्माण कला का केंद्र था। 

ह्वेनसांग ने कनिष्क के 178 विहारों तथा स्तूपों का वर्णन किया है। 

ई०पू० पहली शताब्दी के अंत में मथुरा में जैनियों ने एक विशेष कला-शैली को जन्म दिया जो मथुरा कला के नाम से विकसित हुआ। 

ई०पू० दूसरी शताब्दी में दक्कन में अमरावती कला का विकास हुआ।

मौर्योत्तरकालीन चित्रकला के उदाहरण अजंता की गुफा संख्या 9 एवं 10 में मिलते हैं। 

अजंता की गुफा संख्या-9 में 16 उपासकों को स्तूप की ओर बढ़ते हुए दिखाया गया है। 

गुफा संख्या-10 में जातक कथाएँ अंकित हैं।

कुषाणकालीन साहित्य 

अश्वघोष ने बुद्ध-चरित् (संस्कृत भाषा में) तथा सूत्रालंकार की रचना की। 

बुद्ध चरित् को बौद्धधर्म का महाकाव्य माना जाता है। 

इस काल में अश्वघोष द्वारा रचित काव्य-ग्रंथ सौन्दरानंद अत्यधिक प्रसिद्ध है। इसमें 18 सर्ग हैं। 

अश्वघोष ने 9 अंकों वाले प्रसिद्ध नाटक सारिपुत्र प्रकरण की रचना की।

कनिष्क के काल के एक और प्रसिद्ध विद्वान नागार्जुन ने शून्यवाद का प्रतिपादन किया।

नागार्जुन के शून्यवाद ने शंकराचार्य के मायावाद को प्रभावित किया। 

नागार्जुन ने अपने ग्रंथ ‘माध्यमिक-सूत्र’ में सृष्टि सिद्धांत (Theory of Relativity) को प्रस्तुत किया।

नागार्जुन को भारतीय आइंस्टीन कहा गया। 

वसुमित्र (कनिष्क की राजसभा का एक और प्रसिद्ध विद्वान) ने बौद्ध धर्म के त्रिपिटक पर महाविभाषसूत्र नामक टीका लिखी। 

महाविभाषसूत्र को बौद्ध धर्म का विश्वकोष माना जाता है। 

कनिष्क के राजवैद्य ‘चरक’ ने चरक-संहिता (आयुर्वेदिक ग्रंथ) की रचना की।

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मौर्योत्तर कालीन प्रमुख अभिलेख 

शिनकोट अभिलेख मिनांडर

तख्तेवही अभिलेख गोंडफर्निस

पंजतर अभिलेख कुषाण

जूनागढ़ अभिलेख रुद्रदामन

नानाघाट अभिलेख नागिनका

नासिक अभिलेख गौतमी बलश्री

अयोध्या अभिलेख धनदेव

बेसनगर अभिलेख हेलियोडोरस

मौर्योत्तर कालीन प्रमुख रचनाएं

चरक सहिंता चरक

महाभाष्य पतंजलि

नाट्यशास्त्र भरत

कामसूत्र वात्स्यायन

गाथासप्तशती हाल

स्वप्नवासवदत्ता भास

बुद्ध चरित्र सौंदरनंद अश्वघोष

मृच्छकटिकम् शूद्रक

मिलिंदपन्हो नागसेन

गांधार कला एवं मथुरा कला में अंतर

गांधार कला मथुरा कला

गहरे नीले एवं काले पत्थर का प्रयोग लाल पत्थर का प्रयोग

संरक्षक शक एवं कुषाण संरक्षक कुषाण

यथार्थवादी आदर्शवादी

मुख्यतः बुद्ध की मूर्तियां बौद्ध, जैन तथा ब्राह्मण धर्म से संबंधित मूर्तियां

गांधार तथा मथुरा कला शैली Audio Notes


मौर्योत्तर कालीन प्रमुख बंदरगाह 

सोपारा पश्चिमी तट

भड़ौच गुजरात

देवल सिंध

पोलूरा उड़ीसा तट

टेमाटाइल्स निचली गंगा घाटी

चौल (समिल्ला) केरल तट

नौरा (मंगलौर) केरल तट

टिंडीस केरल तट

मुजरिस केरल तट

कोल्वी (कोरकई) तमिल तट

पुहार (कावेरीपट्टनम) तमिल तट

मागपट्टनम तमिल तट

कमारा तमिल तट

मसूलीपट्टनम आंध्र तट

कौन्डोक आंध्र तट

साइला आंध्र तट

निट्रिग आंध्र तट

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