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पुष्यभूति वंश
हर्षवर्धन
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हर्ष प्रशासन के प्रमुख पदाधिकारी
पुष्यभूति वंश
गुप्त वंश के पतन के पश्चात् पुष्यभूति ने थानेश्वर में एक नवीन राजवंश की स्थापना की जिसे ‘पुष्यभूति वंश’ कहा गया।
पुष्यभूति शिव का उपासक था।
हर्षवर्द्धन (इस राजवंश का सबसे प्रतापी शासक) के लेखों में उसके केवल चार पूर्वजों नरवर्द्धन, राज्यवर्द्धन, आदित्यवर्द्धन एवं प्रभाकरवर्द्धन का उल्लेख मिलता है।
थानेश्वर राज्य के 3 आरंभिक शासक मामूली सरदार थे।
चौथे शासक प्रभाकरवर्द्धन को इस वंश का प्रथम शक्तिशाली शासक माना जाता है।
प्रथम तीन शासकों ने मात्र महाराज की उपाधि धारण की जबकि ‘प्रभाकरवर्द्धन’ ने परमभट्टारक एवं महाराजाधिराज आदि उपाधियाँ धारण की।
प्रभाकरवर्द्धन ने अपनी पुत्री राजश्री का परिणय ग्रहवर्मन से किया जो मौखरी वंश का था।
देवगुप्त (मालवा नरेश) एवं शशांक (गौड़ का शासक) ने मिलकर ग्रहवर्मन की हत्या कर दी।
प्रभाकरवर्द्धन के उत्तराधिकारी राज्यवर्द्धन की भी शशांक ने हत्या कर दी।
हर्षवर्धन
606 ई० में 16 वर्ष की आयु में हर्षवर्द्धन राजगद्दी पर बैठा।
गद्दी पर बैठने के साथ ही हर्षवर्धन के सामने दो बड़ी चुनौतियां थीं – अपनी बहन राज्यश्री को ढूँढना तथा अपने भाई तथा बहनोई की हत्या का बदला लेना
सबसे पहले उसने अपनी बहन को अपने एक बौद्ध भिक्षु मित्र दिवाकर मित्र जिसका नाम था उसकी मदद से ढूंढ निकाला वह उस वक्त सती होने जा रही थी !
इसके पश्चात उसने शशांक से बदला लेने निकला, इसकी खबर लगते ही शशांक भाग निकला परंतु हर्ष ने उसे बंगाल में हराया तथा बंगाल पर आधिपत्य कर लिया
हर्ष के विजय अभियान को रोका बादामी के चालुक्यों में से एक पुलकेशियन द्वितीय ने, इसने हर्ष को नर्मदा नदी के किनारे पर हराया
आरंभ में हर्षवर्द्धन की राजधानी थानेश्वर थी, बाद में उसने इसे कन्नौज स्थानांतरित कर दिया।
हर्षचरित् की रचना हर्ष के दरबारी कवि वाणभट्ट ने की।
हर्षवर्द्धन स्वयं एक बड़ा साहित्यकार था तथा उसने रत्नावली, नागानंद एवं प्रियदर्शिका जैसी प्रसिद्ध नाट्य-ग्रंथों की रचना की। वह शैव धर्म का उपासक था।
हर्षवर्द्धन के शासनकाल में चीनी यात्री ह्वेनसांग भारत की यात्रा पर आया। ह्वेनसांग को यात्री सम्राट एवं नीति का पंडित कहा गया है।
हर्षवर्द्धन को एक अन्य नाम शिलादित्य से भी जाना जाता है।
हर्षवर्द्धन उत्तरी भारत का अंतिम महान हिंदू सम्राट था, उसने परमभट्टारक की उपाधि धारण की।
ऐहियोल प्रशस्ति के अनुसार 630 ई० में हर्ष को ताप्ती नदी के किनारे बदामी के चालुक्य वंशीय शासक पुलकेशिन-II ने पराजित किया।
हर्ष काफी धार्मिक प्रवृत्ति का था एवं प्रतिदिन 500 ब्राह्मणों एवं 1000 बौद्ध भिक्षुओं को भोजन कराता था।
हर्ष द्वारा 643 ई० में कन्नौज तथा प्रयाग में दो विशाल धार्मिक सभाओं का आयोजन किया गया।
प्रयाग में आयोजित सभा को मोक्षपरिषद् कहा गया।
हर्षवर्द्धन काल में अधिकारियों एवं कर्मचारियों को नकद वेतन के बदले भू-खण्ड देने की प्रथा जोरों पर थी इस कारण इस युग में सामंतवाद अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया।
हर्षवर्द्धन काल में सामंतवाद के अत्यधिक प्रचलन के कारण गुप्तकाल के मुकाबले प्रशासन अधिक विकेंद्रित हो गया।
हर्ष-काल में राजस्व के स्रोत के संदर्भ में तीन प्रकार के करों भाग, हिरण्य एवं बलि का भी उल्लेख मिलता है। ।
‘भाग’ एक भूमिकर था जो कुल उपज का 1/6 हिस्सा वसूला जाता था।
‘हिरण्य’ नकद के रूप में वसूला जाने वाला कर था। ‘बाली’ एक प्रकार का उपहार कर था। ह्वेनसांग के अनुसार हर्ष की सेना में करीब 500 हाथी, 2000 घुड़सवार एवं 5 हजार पैदल सैनिक थे।
हर्षवर्द्धन ने 641 ई० में अपना एक दूत चीनी सम्राट के दरबार में भेजा तथा चीनी सम्राट ने भी अपना एक दूतमंडल हर्ष के दरबार में भेजा। हर्षवर्द्धन की मृत्यु 647 ई० में हुई।
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हर्ष प्रशासन के प्रमुख पदाधिकारी
कुमार अमात्य उच्च प्रशासकीय पदाधिकारी
दीर्घध्वज राजकीय संदेशवाहक
सर्वगत गुप्तचर विभाग का सदस्य
बलाधिकृत सेनापति
महासंधिविग्रहधिकृत युद्ध/संधि से संबंधित एक उच्चाधिकारी
मीमांसक न्यायाधीश
महाप्रतिहार राज-प्रासाद का रक्षक
चाट/भट वैतनिक/अवैतनिक सैनिक
उपरिक/महाराज प्रांतीय गवर्नर
अक्षपटलिक लिपिक
पूर्णिक लिपिका
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