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ब्रिटिश शासन में संवैधानिक विकास 🔥

 भारतीय राज्यव्यवस्था (Indian Polity) का प्रतियोगी परीक्षाओं जैसे SSC, UPSC, UPPSC आदि में विशेष महत्व है,और सदैव ही इस भाग से सवाल पूछे जाते हैं, सामान्य अध्ध्ययन का ये भाग वैसे बेहद ही आसान है यदि एक बार इसे ठीक से समझ लिया जाये तो चलिये समझते हैं ।

ब्रिटिश शासन में सांविधानिक विकास 

भारत में संविधान का विकास 1857 तक ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधीन और उसके पश्चात ब्रिटिश क्राउन के अधीन हुआ, ईस्ट इंडिया कम्पनी का संचालन दो समितियों द्वारा किया जाता था, “स्वामी मण्डल और संचालक मण्डल”


स्वामी मण्डल(Court of Proprietors)- कम्पनी के सभी साझीदार इसके सदस्य होते थे, जिन्हें सभी नियम कानून और अध्यादेश बनाने का अधिकार था, और इन्हें ये भी अधिकार था कि यदि कोई नियम संचालक मण्डल बना रहा है तो ये उसे रद्द भी कर सकते थे

संचालक मण्डल(Court of Directors)-  संचालक मण्डल में 24 सदस्य होते थे जो स्वामी मण्डल से ही होते थे और स्वामी मण्डल द्वारा ही चुने भी जाते थे, संचालक मण्डल का कार्य स्वामी मण्डल द्वारा बनाये गये नियमों का पालन करवाना था

भारतीय संविधान का ढांचा विकसित होने में मूल रूप से 1857 ई0 के बाद ब्रिटिश क्राउन द्वारा किये गये संवैधानिक परिवर्तन महत्वपूर्ण हैं


रेग्युलेटिंग एक्ट (Regulation Act) 1773 

मद्रास और बम्बई प्रेसिडेंसियों को बंगाल प्रेसिडेंसी के गवर्नर जनरल के अधीन कर दिया गया

कलकत्ता के फोर्ट विलियम में एक सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की गयी जिसका अधिकार क्षेत्र बंगाल, बिहार तथा उडीसा तक था

इस नियम का मूल उद्देश्य कम्पनी की गतिविधियों को ब्रिटिश क्राउन की निगरानी में लाना था

पिट्स इंडिया एक्ट (Pits India Act) 1784

एक नियंत्रण मंडल (Board of Control)की स्थापना की गयी


 

संचालक मंडल, नियंत्रण मंडल की सभी आज्ञाएं मानने के लिये बाध्य था

और स्वामी मण्डल के संचालक मण्डल के फैसले उलटने के अधिकार को खत्म कर दिया गया

चार्टर अधिनियम (Charter Act)1793

नियंत्रण मण्डल के सदस्यों और स्टाफ को भारतीय राजस्व से वेतन देना प्रारम्भ किया गया, जो 1919 तक जारी रहा

चार्टर अधिनियम(Charter Act) 1813

इस चार्टर से कम्पनी के अधिकार पत्र को 20 वर्ष के लिये बढा दिया गया

कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार(Monopoly) को समाप्त कर दिया गया

हालांकि चाय, चीनी और सिल्क के व्यापार पर कम्पनी का एकाधिकार बना रहा

चार्टर अधिनियम (Charter Act)1833

अब ईस्ट इंडिया कम्पनी के सभी व्यापारिक अधिकार समाप्त कर दिये गये और अब वह भारत में सिर्फ प्रशासन के प्रति उत्तरदायी रह गयी थी

अब यूरोपीय लोग भारत में सम्पत्ति अर्जित कर सकते थे, क्योंकि उस पर लगी रोक हटा ली गयी थी

बंगाल के गवर्नर जनरल को भारत का गवर्नर जनरल बना दिया गया

भारतीय विधि आयोग की स्थापना की गयी


 

विधि आयोग ने कई रिपोर्ट पेश की जिनमें से मैकाले का पेनल कोड बहुत प्रसिद्ध है

मद्रास तथा बम्बई में गवर्नरों की कानून बनाने की शक्ति को घटा दिया गया और उनके द्वारा किसी कानून को रद्द करने के अधिकार को समाप्त कर दिया गया

चार्टर अधिनियम 1853

कंपनी को भारतीय प्रदेशों को जब तक संसद चाहे तब तक के लिए अपने अधीन रखने की अनुमति दी गई

गवर्नर जनरल को बंगाल के शासन से मुक्त करते हुए वहां के शासन के लिए एक लेफ्टिनेंट गवर्नर की नियुक्ति की गई

गवर्नर जनरल की विधाई एवं कार्यपालिका शक्तियों को पृथक कर दिया गया अतः गवर्नर जनरल की परिषद से अलग एक विधान परिषद की स्थापना हुई

कंपनी के कर्मचारियों की नियुक्ति के लिए प्रतियोगी परीक्षा की व्यवस्था की गई

निदेशक मंडल में सदस्यों की संख्या 24 से कम करके 18 कर दी गई तथा इसमें 6 सदस्यों को नियुक्त करने का अधिकार ब्रिटिश क्राउन को दे दिया गया


 

निदेशक मंडल के सदस्यों के लिए योग्यता निर्धारित की गई

विधि आयोग जो कि समाप्त हो चुका था इसके स्थान पर इंग्लिश लॉ कमीशन की नियुक्ति की गई इसी कमीशन ने भारतीय दंड संहिता दीवानी तथा फौजदारी प्रक्रियाओं के संकलन को अंतिम रूप दिया

1858 का भारतीय शासन अधिनियम

1857 की क्रांति ने कंपनी शासन की असंतोषजनक नीतियों को उजागर कर दिया था जिससे ब्रिटिश संसद को कंपनी को पद से हटाने का मौका मिल गया और इस अधिनियम द्वारा निम्न प्रावधान किए गए

भारतीय प्रशासन ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों से लेकर सीधे ब्रिटिश क्राउन के अधीन कर दिया गया

अब भारत का शासन ब्रिटिश साम्राज्ञी की ओर से भारत राज्य सचिव को चलाना था जिसकी सहायता के लिए 15 सदस्य भारत परिषद का गठन किया गया अब भारत में शासन से संबंधित सभी कानूनों और कार्यवाहियों पर भारत सचिव की स्वीकृति अनिवार्य कर दी गई

अब गवर्नर जनरल क्राउन का प्रतिनिधि हो गया तथा उसे वायसराय की उपाधि मिली


 

अनुबंध सिविल सेवा में नियुक्ति के लिए प्रतियोगिता द्वारा नियुक्ति की जाने लगी

अखिल भारतीय सेवाएं तथा अर्थव्यवस्था से संबंध मसलों पर भारत सचिव भारत परिषद की राय मानने के लिए बाध्य था

भारत राज्य सचिव एक निगम निकाय घोषित कर दिया गया जिस पर इंग्लैंड एवं भारत में दावा किया जा सकता था अथवा जो दावा दायर कर सकता था

भारतीय परिषद अधिनियम 1861

गवर्नर जनरल की कार्यकारी परिषद का विस्तार करते हुए उसमें कुछ गैर सरकारी सदस्यों को शामिल किया गया

भारतीय प्रतिनिधियों को कानून निर्माण करने की प्रक्रिया में शामिल किया जाने लगा

इस अधिनियम में पहली बार विभागीय प्रणाली का आरंभ हुआ

गवर्नर जनरल को पहली बार अध्यादेश निकालने की शक्ति दे दी गई

विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया को शुरु किया गया जिसमें बंबई और मद्रास को पुनः विधाई अधिकार दिए गए

भारतीय परिषद अधिनियम 1892

गैर सरकारी सदस्यों को नियुक्त करने के लिए विशुद्ध नामांकन के स्थान पर सिफारिश के आधार पर नामांकन की पद्धति लागू की गई


 

परिषदों को बजट पर विचार-विमर्श करने एवं कार्यपालिका से संबंधित प्रश्न करने का अधिकार दे दिया गया

परंतु इस अधिनियम में व्याप्त विसंगतियों के कारण भारतीय राष्ट्रवादियों ने अधिनियम की जमकर आलोचना की और यह माना गया कि स्थानीय निकायों के चुनाव मंडल बनाना एक प्रकार से इनके द्वारा मनोनीत करना ही है विधानमंडल को बहुत ही सीमित शक्तियां प्राप्त थी जैसे सदस्य अनुपूरक प्रश्न नहीं पूछ सकते थे किसी भी प्रश्न का उत्तर देने से मना किया जा सकता था कुछ वर्गों को कोई प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया था जबकि कुछ को बहुत ज्यादा जैसे मुंबई में 2 स्थान यूरोपीय व्यापारियों को दिए गए जबकि भारतीय व्यापारियों को एक भी नहीं

भारत परिषद अधिनियम 1909

इसे मार्ले-मिंटो सुधार भी कहा जाता है

तत्कालीन भारत सचिव लॉर्ड मार्ले और वायसराय मिन्टो के नाम पर प्रतिनिधिक और लोकप्रियता के क्षेत्र में किए सुधारों का समावेश 1909 के भारतीय परिषद अधिनियम में किया गया


 

इन सुधारों के पीछे दो घटनाएं मुख्य थी प्रथम अक्टूबर 1906 आगा खान के नेतृत्व में एक मुस्लिम प्रतिनिधिमंडल लार्ड मिंटो से मिला और मांग की कि मुसलमानों को प्रथम निर्वाचन प्रणाली की सुविधा मिले तथा द्वितीय मांग थी कि मुसलमानों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व मिले

इन्हीं परिपेक्ष में भारतीय परिषद अधिनियम 1909 के प्रावधान बनाए गए थे

इस अधिनियम द्वारा मुस्लिम समुदाय के लिए पृथक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था की गई

प्रांतीय विधान परिषदों के आकार में वृद्धि करते हुए उसमें कुछ निर्वाचित गैर सरकारी सदस्यों को भी शामिल किया गया

निर्वाचित गैर सरकारी सदस्यों के शामिल होने से प्रांतीय विधान मंडलों में शासकीय बहुमत समाप्त हो गया परंतु केंद्रीय विधान परिषद में यह बना रहा

कुछ विनिर्दिष्ट विषयों को छोड़कर विधान परिषदों को यह अधिकार दिया गया कि वह बजट या लोकहित के मुद्दों पर प्रस्ताव पारित कर प्रशासन पर प्रभाव  डाल सकें

भारत शासन अधिनियम 1919

इसे मांटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार भी कहा जाता है


 

इस अधिनियम के अंतर्गत प्रांतों में द्वैध शासन की व्यवस्था की गई जिसके तहत प्रांतीय विषयों को आरक्षित एवं हस्तांतरित दो वर्गों में विभाजित किया गया प्रांतीय विधान परिषदों में निर्वाचित सदस्यों की संख्या 70% तक कर दी गई

उत्तरदाई सरकार की नीवं हस्तांतरित विषयों के संकीर्ण क्षेत्र में डाली गई

प्रांतीय गवर्नर एवं उसकी कार्यकारी परिषद द्वारा आरक्षित विषयों का प्रशासन होना निश्चित हुआ जिसमें कोई भी विधानमंडल के प्रति उत्तरदाई नहीं था

प्रशासन के समस्त विषयों को केंद्रीय एवं प्रांतीय विषयों में विभाजित किया गया  स्थूल रूप से राष्ट्रीय महत्व के विषयों को केंद्रीय एवं प्रांतीय महत्व के विषयों को प्रांतीय विषय के तहत रखा गया

प्रांतों का राजस्व केंद्रीय राजस्व से अलग कर दिया गया केंद्रीय विधान परिषद को द्विसदनीय पहली बार बनाया गया इस के उच्चतर सदन को राज्य परिषद कहा गया जिस का गठन 60 सदस्यों से हुआ

राज्य परिषद के 60 सदस्यों में 34 निर्वाचित सदस्य थे निचले सदन जिसका नाम विधानसभा था इसमें 144 सदस्य थे इस में से 104 सदस्य निर्वाचित सदस्य थे


 

दोनों सदनों की शक्तियां प्राय समान थी परंतु बजट पर मतदान करने का अधिकार निचले सदन को ही था गवर्नर जनरल को भारतीय विधान मंडल द्वारा पारित किसी विधेयक पर वीटो करने अथवा सम्राट के विचारार्थ प्रेषित करने का अधिकार दिया गया गवर्नर जनरल को भी अधिकार दिया गया के विधान मंडल द्वारा नामंजूर किए गए किसी विधेयक या अनुदान को प्रमाणित कर दे और गवर्नर जनरल आपात की दशा में अध्यादेश जारी कर सकता था

भारत शासन अधिनियम 1935

1935 ईस्वी के भारत शासन अधिनियम द्वारा परिसंघ की स्थापना का प्रावधान था जिसमें प्रांतों और देशी रियासतों की इकाइयां थी देसी रियासतों को इसमें शामिल होने का विकल्प था हालांकि यह परिसंघ कभी नहीं बन सका

इस अधिनियम के द्वारा विधाई शक्तियों का केंद्र तथा प्रांतों के बीच विभाजन किया गया

1937 में इस अधिनियम के प्रावधानों के तहत प्रांतीय स्वायत्तता प्रभावी की गई प्रांतीय गवर्नर सम्राट की ओर से प्रांत की कार्यपालिका शक्तियों का प्रयोग करता था अब वह गवर्नर जनरल के अधीन नहीं रहा था

प्रांतीय गवर्नर को मंत्रियों की सलाह से शासन करना था जो प्रांतीय विधानमंडल के प्रति उत्तरदाई थे

प्रांतों में द्वैध शासन प्रणाली समाप्त कर दी गई परंतु केंद्र में लागू की गई अब गवर्नर-जनरल आरक्षित विषयों के मामलों में केंद्रीय विधानमंडल के प्रति उत्तरदाई नहीं रहा

इस अधिनियम के तहत एक संघीय न्यायालय की स्थापना की गई जिसमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा दो अन्य न्यायाधीश थे

संघीय न्यायालय का अधिकार क्षेत्र प्रांतों तथा रियासतों तक विस्तृत था न्यायालय से संबंधित अंतिम शक्ति प्रिवी काउंसिल लंदन को प्राप्त थी

इस अधिनियम द्वारा भारत परिषद समाप्त कर दिया गया तथा भारतीय शासन पर ब्रिटिश संसद की सर्वोच्चता स्थापित की गई

इस अधिनियम द्वारा सांप्रदायिक निर्वाचन पद्धति का विस्तार किया गया तथा वर्मा को भारत से अलग किया गया


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