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गुप्त काल | सम्पूर्ण जानकारी

 विषय सूची


गुप्त काल (GUPTA PERIOD) 

गुप्तकालीन संस्कृति

प्रशासन (Administration)

गुप्तकालीन केंद्रीय नौकरशाही 

समाज एवं अर्थव्यवस्था

गुप्त कालीन प्रसिद्ध मंदिर

शिक्षा एवं साहित्य 

कला (Arts)

विज्ञान (Science)

Audio Notes

गुप्त काल (GUPTA PERIOD) 

पुराणों के अनुसार गुप्तों का उदय प्रयाग और साकेत के बीच संभवतः कौशांबी में हुआ था। 

गुप्त राजवंश की स्थापना लगभग तीसरी शताब्दी में हुई, श्री गुप्त इस वंश का संस्थापक था। 

श्री गुप्त का शासन संभवतः 240-280 ई० के दौरान रहा।

प्रभावती गुप्त (चंद्र गुप्त-I की पुत्री) के पूना ताम्रपत्र अभिलेख में श्रीगुप्त को गुप्तवंश का आदिराज कहा गया है।

श्रीगुप्त के उत्तराधिकारी घटोत्कच गुप्त ने संभवतः 280 ई० से 320 ई० तक शासन किया। 

प्रभावती गुप्त के दो अभिलेखों में घटोत्कच गुप्त को ‘प्रथम गुप्त राजा’ कहा गया है।

इस वंश का तीसरा एवं प्रथम महान शासक चंद्र गुप्त-I था जो 320 ई० में शासक बना। 

चंद्रगुप्त-I ने ‘लिच्छवी राजकुमारी’ कुमारदेवी से विवाह किया। कुमारदेवी को राज्याधिकारिणी शासिका होने के कारण महादेवी कहा गया। 

चंद्रगुप्त-I ने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की।

माना जाता है कि 20 दिसंबर 318ई० अथवा 26 फरवरी 320 ई० से चंद्रगुप्त-I ने गुप्त संवत् की शुरूआत की। 

वायु-पुराण के अनुसार चंद्रगुप्त-I का शासन अनुगंगा प्रयाग, साकेत एवं मगध पर था। 

हरिषेण के प्रयाग प्रशस्ति अभिलेख, एरण अभिलेख एवं रिथपुर दान-शासन अभिलेख आदि से ज्ञात होता है कि चंद्रगुप्त-I ने अपने सबसे योग्य पुत्र ‘समुद्रगुप्त’ को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया।

डॉ० आर० सी० मजूमदार के अनुसार समुद्रगुप्त के सिंहासनारोहण की तिथि 340 एवं 350 ई० के बीच रखी जा सकती है। 

समुद्रगुप्त एक महान विजेता था, उसने आर्यावर्त (उत्तरी भारत) के 9 तथा दक्षिणापथ के 12 नरेशों को हराकर प्राचीन भारत में दूसरे अखिल भारतीय साम्राज्य की स्थापना की।

समुद्रगुप्त इतिहास में एशियन नेपोलियन एवं सौ युद्धों के नायक (Heroof Hundred Battles) के नाम से विख्यात है। 

प्रभावती गुप्त के पूना प्लेट अभिलेख से ज्ञात होता है कि समुद्रगुप्त ने एक से अधिक अश्वमेध यज्ञ किये।

अश्वमेध यज्ञ में दान देने के लिए समुद्रगुप्त ने जो सोने के सिक्के ढलवाये उनपर अश्वमेध पराक्रम शब्द उत्कीर्ण हैं। 

समुद्रगुप्त के स्वर्ण-सिक्कों पर उसका वीणा बजाते हुए एक चित्र अंकित है, इससे उसके संगीत प्रेमी होने का संकेत मिलता है। 

सिंघलद्वीप का शासक मेघवर्ण समुद्रगुप्त का समकालीन था, उसने बोध गया में एक बौद्ध-विहार के निर्माण की इजाजत मांगी। 

समुद्रगुप्त ने मेघवर्ण को अनुमति दे दी एवं बोध गया में महाबोधि संघाराम नामक एक बौद्ध-विहार निर्मित हुआ। 

समुद्रगुप्त के गरूदमंगक (गरूड़ की मूर्ति से अंकित मुद्रा) से मालूम होता है कि वह गरूड़वाहन विष्णु का भक्त था। 

समुद्रगुप्त को कविराज कहा गया है तथा उसने विक्रमंक की उपाधि धारण की थी। 

समुद्रगुप्त का दरबारी कवि हरिषेण था। उसने ‘इलाहाबाद प्रशस्ति अभिलेख’ की रचना की। 

नाट्यदर्पण (रामचंद्र गुणचन्द्र), मुद्राराक्षस एवं देवीचंद्रगुप्तम (विशाखदत) हर्षचरित (बाणभट्ट), काव्य मीमांसा (राजशेखर) एवं राष्ट्रकूट अमोघवर्ष के शक संवत् 795 के संजान ताम्रपत्र से ज्ञात होता है कि चंद्रगुप्त-II से पूर्व एक और गुप्त शासक रामागुप्त हुआ था जो समुद्रगुप्त का उत्तराधिकारी बना। 

गुप्त सम्वत् 61 के मथुरा स्तंभ अभिलेख में कहा गया है कि गुप्त संवत् 61 वर्ष या 380 ई० चंद्रगुप्त-II के शासनकाल का 5वाँ वर्ष था। 

उपरोक्त तथ्य के आधार पर चंद्रगुप्त-II के सिंहासनारोहण की तिथि 375 ई० निर्धारित की जाती है। 

चंद्रगुप्त-II की अंतिम ज्ञात तिथि सांची अभिलेख में गुप्त संवत् ’93 उल्लिखित है, यह वर्ष 412-13 ई० है। 

गुप्त संवत् ’96 यथा 415 ई० के बिलसाड अभिलेख के अनुसार उस समय कुमार गुप्त-I का राज्य था। 

उपरोक्त तथ्य के आधार पर चंद्रगुप्त-II के निधन की तिथि 414ई० निर्धारित की जाती है। 

सम्राट बनने के पश्चात चंद्रगुप्त-II ने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की। 

चंद्रगुप्त-II ने अपनी पुत्री प्रभावती गुप्त का विवाह वाकाटक नरेश रूद्रसेन से किया। 

गुप्त काल में ही भारत से गणतंत्रों का अस्तित्व समाप्त हो गया। 

चन्द्रगुप्त-II ने अवन्ति के अंतिम शक क्षत्रप का नाश किया। 

चन्द्रगुप्त-II का साम्राज्य पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर पश्चिम में नर्मदा नदी तक समस्त उत्तर भारत में फैला हुआ था। 

चन्द्रगुप्त-II ने भी अश्वमेध यज्ञ किया तथा महाराजाधिराज, श्रीविक्रम एवं शकारि आदि उपाधि धारण की 

चन्द्रगुप्त-II विष्णु का उपासक था, जिनका वाहन गरूड़ गुप्त साम्राज्य का राजचिन्ह था। 

गुप्त सम्राट परम भागवत् कहलाते हैं। 

चंद्रगुप्त-II एक धर्म-सहिष्णु शासक था। 

चंद्रगुप्त-II के काल में चीनी बौद्ध यात्री फाह्यान भारत आया। 

चंद्रगुप्त-II द्वारा शकों पर विजय के उपलक्ष्य में चाँदी के सिक्के चलाए गये। 

चंद्रगुप्त-II का उत्तराधिकारी कुमारगुप्त-I (414-454 ई०) था। कुमारगुप्त-I ने नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना की।

कुमारगुप्त-I के बाद उसका पुत्र स्कंधगुप्त (455-467 ई०) उत्तराधिकारी बना। 

स्कंधगुप्त ने वीरता और साहस के साथ हूणों के आक्रमण से अपने साम्राज्य की रक्षा की। 

स्कंधगुप्त द्वारा पर्णदत्त को सौराष्ट्र का गवर्नर नियुक्त किया। 

स्कंधगप्त ने गिरिनार पर्वत पर स्थित सुदर्शन झील का पुनर्निर्माण कराया। 

अंतिम गुप्त शासक भानुगुप्त था।

गुप्तकालीन संस्कृति

प्रशासन (Administration)

इस युग की शासन-पद्धति के विषय में फाहियान के विवरण, अभिलेख एवं सिक्के, विशाखदत्त का मुद्राराक्षस, कालीदास ग्रंथावली एवं कामंदकीय नीतिसार आदि स्रोतों से जानकारी मिलती है। 

शासन के समस्त विभागों की अंतिम शक्ति राजा के हाथों में निहित थी।

सम्राट का ज्येष्ठ पुत्र युवराज होता था जो शासन में राजा की मदद करता था। 

युवराजों को प्रांतपति भी बनाया जाता था। शासन में राजा की सहायता के लिए एक मंत्रिपरिषद थी। 

एक ही मंत्री कई विभागों का प्रधान भी होता था। संमुद्रगुप्त का दरबारी कवि हरिषेण एक साथ संधिविग्रहिक, कुमारामात्य एवं महादण्डनायक जैसे तीन पदों को संभालता था। 

राजा स्वयं मंत्रिपरिषद की अध्यक्षता करता था। 

गुप्तकाल में पुरोहित को मंत्रिपरिषद में स्थान नहीं दिया गया। साम्राज्य के विभिन्न पदों पर नियुक्त राजपरिवार के सदस्यों को कमारमात्य कहा जाता था। 

अधिकारियों को नकद वेतन के साथ-साथ भूमि अनुदान देने की भी प्रथा थी। 

सैन्य विभाग का गुप्त-प्रशासन में सर्वाधिक महत्व था। 

सम्राट ही सेनाध्यक्ष होता था। वृद्ध सम्राट के सेना की अध्यक्षता युवराज करता था। 

गुप्तकाल में पुलिस की समुचित व्यवस्था थी एवं इसके साधारण कर्मचारियों को चाट एवं भाट कहा जाता था। पहरेदार को रक्षिन् कहा जाता था। 

गुप्तचर विभाग काफी दक्ष था एवं इसके कर्मचारी दूत कहलाते थे। 

नारद स्मृति के अनुसार गुप्तकाल में 4 प्रकार के न्यायालय पाये जाते थे1. कुल न्यायालय, 2. श्रेणी न्यायालय, 3. गुण न्यायालय एवं 4. राजकीय न्यायालय। 

शिल्प संघों के न्यायालय शिल्पियों एवं कारीगरों के विवादों का निपटारा किया करते थे। शासन की सुविधा के लिए गुप्त साम्राज्य को कई भुक्तियों (प्रांतों) में बाँटा गया था।

राजस्व प्रशासन 6 गुप्त लेखों से ज्ञात होता है इस काल में 18 प्रकार के ‘कर’ प्रचलन में थे, परंतु उनके नाम वर्तमान में ज्ञात नहीं हैं। 

तत्कालीन साहित्य में आय के कई साधनों का विवरण है भू-राजस्व-भाग, उपरिकर (उद्रंगकर): कुल उपज का 1/6 हिस्सा लिया जाता था। अन्य कर-भोग, भूतोवात, प्रत्याय एवं विष्टि आदि। चुंगी-नगरों तथा गाँवों में बाहर से आने. वाले माल पर चुंगी लगती थी। शुल्क व्यापारियों एवं शिल्पियों से लिया जाने वाला कर।

गुप्तकालीन केंद्रीय नौकरशाही 

गुप्तकालीन केंद्रीय नौकरशाही के विषय में कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है। परंतु कुछ प्रमुख कर्मचारियों के पदों का जिक्र अवश्य मिलता है। गुप्त शासकों ने किसी नयी व्यवस्था को जन्म नहीं दिया, बल्कि पुरानी व्यवस्था को ही आवश्यक परिवर्तनों के साथ लागू किया !


महासेनापति युद्ध क्षेत्र का सैन्य संचालक

महारणभंडागारिक सेना के लिए आवश्यक सामग्री का प्रबंधकर्ता

महाबलाधिकृत सेना, छावनी एवं व्यूहरचना विभाग का प्रधान

महादंडपाशिक पुलिस विभाग का प्रधान

महादंडनायक युद्ध एवं न्याय संबंधी कार्य करता था

चाट साधारण सैनिक

चमू सेना की छोटी टुकड़ी

महासंधिविग्रहिका इस पद को धारण करने वाले का कार्य एक राजदूत का था।

विनयस्थितिस्थापक यह शांति एवं धर्मनीति का प्रमुख अधिकारी था

भंडागाराधिकृत राजकीय कोष का प्रधान

महाअक्षपटलिक अभिलेख विभाग का प्रधान

सर्वाध्यक्ष केंद्रीय सचिवालय की देखरेख करने वाला

महाप्रतिहार राजप्रासाद का मुख्य रक्षक

ध्रुवाधिकरण राज्य के कर वसूली विभाग का प्रमुख

गोल्मिक जंगलों से राजस्व प्राप्त करने वाला पदाधिकारी

गोप ग्रामों की देखभाल करने वाला

कारणिक राजिस्ट्रार, लेखक या लिपिक

पुस्तपाल महाक्षपटलिक का सहायक

अग्रहारिक दान विभाग का प्रधान

महापीलुपति गजसेना का अध्यक्ष

महाश्वपति अश्वसेना का अध्यक्ष

गुप्त काल में राज्य को देश अथवा राष्ट्र कहा जाता था। 

गुप्त काल में प्रांतों की संख्या मुख्य रूप से ‘8’ थी। 

गुप्तकाल में ‘भुक्ति’ का प्रधान प्रांतपति, उपरिक, महाराज अथवा गोप्ता कहलाता था। 

उपरोक्त सभी राज्यपालों की तरह प्रांतों में केंद्रीय शासन का प्रतिनिधित्व करते थे। 

भुक्ति के अंतर्गत कई विषय (जिले) हुआ करते थे। 

विषय का शासक विषयपति होता था। वह तन्नियुक्तक भी कहलाता था। 

विषयपति की नियुक्ति प्रांतपति करता था, केंद्रीय शासन से उसका कोई संबंध नहीं था। विषयपति की सहायता के लिए स्थानीय समिति रहती थी। 

इसमें नगर श्रेष्ठी (नगर का प्रमुख), सार्थवाह (व्यापारियों का प्रमुख), प्रथम कुलिक शिल्पी-संघ का प्रमुख), प्रथम कायस्थ (प्रधान लिपिक) सदस्य होते थे। नगर प्रशासन का प्रमुख द्वांगिक कहलाता था। 

नगर प्रशासन में नगरपति एवं पुरपाल नामक अन्य पदाधिकारियों का भी उल्लेख मिलता है। शासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी। इसका प्रमुख ग्रामपति या महत्तर होता था। 

दामोदरपुर ताम्रपत्र अभिलेख से ‘ग्राम पंचायतों’ के अस्तित्व की जानकारी भी मिलती है। 

ग्रामों के आय-व्यय का लेखा-जोखा तलवारक नामक पदाधिकारी रखता था।

समाज एवं अर्थव्यवस्था

गुप्त कालीन समाज परंपरागत रूप से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र चार वर्गों में विभाजित था। 

गुप्तकाल में स्त्रियों की दशा श्रेष्ठ नहीं थी। उन्हें संपत्ति के अधिकार से अलग कर दिया गया था। 

गुप्तकाल में बाल-विवाह के प्रथा को बढ़ावा मिला। 

510 ई० के भानुगुप्त के एरण अभिलेख से सती प्रथा का पहला प्रमाण प्राप्त होता है, यह तिथि गुप्तकाल की है। 

गुप्तकाल में वेश्याओं को गणिका एवं वृद्ध वेश्याओं को कुट्टनी कहते थे। 

याज्ञवल्क्य स्मृति में सर्वप्रथम कायस्थ शब्द उपयोगिता के आधार पर भमि के प्रकार का उल्लेख मिलता है।

जाति के रूप में ‘कायस्थ’ का उल्लेख सर्वप्रथम ओशनम स्मृति में मिलता है। 

गुप्तकालीन ‘कृषि’ का विस्तृत वर्णन वृहत्संहिता एवं अमरकोष में मिलता है।

क्षेत्र भूमि कृषि योग्य भूमि

वास्तु भूमि निवास योग्य भूमि

चारागाह भूमि पशुओं के चारा के योग्य भूमि

खिल्य ऐसी भूमि जो जोतने योग्य नहीं होती थी।

अग्रहत गुप्तकाल में जंगली भूमि को  अग्रहत’ कहते थे।

कृषि से संबंधित कार्यों को देखने की जिम्मेदारी महाअक्षपटलिक एवं कारणिक पर थी। ।

इस काल में सिंचाई के लिए रहत या घटीयंत्र का प्रयोग होता था।

गुप्त काल में कृषकों को कुल ऊपज का 1/6 हिस्सा ‘कर’ के रूप में देना पड़ता था। 

दशपुर, बनारस, मथुरा और कामरूप कपड़ा उत्पादन के बड़े केंद्र थे। 

वृहत्संहिता में कम से कम 22 रत्नों का उल्लेख है। 

रत्नों को परखने की कला इस काल में अत्यंत विकसित थी। 

वात्स्यायन के कामसूत्र में इस कला को 64 कलाओं में शामिल किया गया है। 

जहाज-निर्माण भी इस काल में एक बड़ा उद्योग था। इससे व्यापार में सहायता मिलती थी।

गुप्तकाल में व्यापार अत्यंत उन्नत स्थिति में था

श्रेणियाँ (GUILDS) 

पेशावर, भड़ौंच, उज्जैयनी, बनारस, प्रयाग, मथुरा, व्यापारियों के निगम एवं शिल्पियों की श्रेणियाँ पूर्ववत् कार्य कर रही थीं। 

ये संस्थाएँ बैंकों की तरह भी कार्य करती थी।

इन संस्थाओं का प्रबंध छोटी-छोटी समितियों द्वारा होता था जिनमें 4 से 5 तक सदस्य होते थे।

पाटलिपुत्र, वैशाली एवं ताम्रलिप्ति आदि प्रमुख व्यापारिक केंद्र थे। 

इस काल में जल एवं स्थल मार्ग द्वारा मिस्र, फारस, रोम, यूनान, लंका, बर्मा. समात्रा. तिब्बत. चीन एवं पश्चिम एशिया से व्यापार होता था। 

गुप्तकाल में वैष्णव-भागवत् धर्म की खूब उन्नति हुई। 

गुप्तकाल में अनेक वैष्णव मंदिरों का निर्माण हुआ 

गुप्तकाल में वैष्णव धर्म संबंधी सबसे महत्वपूर्ण अवशेष देवगढ़ (झांसी) के दशावतार मंदिर से प्राप्त हुए हैं। 

शैव, बौद्ध एवं जैन धर्मों को भी इस काल में प्रोत्साहन मिला। 

स्थान विष्णु के 10 अवतारों में वराह एवं कृष्ण की पूजा का प्रचलन इस काल में विशेष रूप से हुआ। 

यह कहा जा सकता है कि गुप्त-युग के आते-आते सनातन धर्म का रूप पूर्णतया निश्चित हो गया।

गुप्त कालीन प्रसिद्ध मंदिर

दशावतार मंदिर देवगढ़ (झांसी)

विष्णु मंदिर तिगवा (जबलपुर, मध्य प्रदेश)

शिव मंदिर खोह (नागौद, मध्य प्रदेश)

पार्वती मंदिर नयना कुठार (मध्य प्रदेश)

भीतरगाँव मंदिर भीतरगाँव (कानपुर)

शिव मंदिर भूमरा (नागौद, मध्य प्रदेश)

शिक्षा एवं साहित्य 

इस काल में कालीदास, शूद्रक, विशाखदत, भारवि, भोट्ट, भास, विष्णु शर्मा आदि जैसे कई साहित्यकार हुए।

पुराणों के वर्तमान स्वरूप का विकास गुप्तकाल में ही हुआ। 

रामायण एवं महाभारत की अंतिम रचना भी गुप्तकाल में ही हुई। 

याज्ञवल्यक्य, नारद, कात्यायन एवं बृहस्पति स्मृतियों की रचना भी गुप्तकाल में ही हुई।

गुप्तकाल की तुलना पेरीक्लीज युग (एथेंस के इतिहास में) तथा एलिजाबेथ युग (अंग्रेजी साहित्य के इतिहास में) से की जाती है। 

गुप्त काल की प्रसिद्ध साहित्यिक रचानाएँ इस प्रकार हैं-

मृच्छकटिकम शूद्रक 

मुद्राराक्षस, देवी चंद्रगुप्तम विशाख दत्त 

किरातर्जुनीयम भारवि

रावण वधः भट्टि

स्वप्नवासवदतम्, चारुदत्त,

उरुभंग, कर्णभा, पंचरात्रि भास

कुमार संभवम्,अभिज्ञान शाकुंतलम्,

विक्रमोर्वशीयम, मालविकाग्निमित्रम,

मेघदूत, ऋतुसंहार कालीदास

पंचतंत्र विष्णु शर्मा

अभिधर्म कोष वसुबन्धु

प्राण समुच्चय दिङ्नाग

सांख्यकारिका ईश्वर कृष्ण

दशपदार्थशास्त्र चन्द्र

अमर कोष अमर सिंह

न्यास जितेन्द्र बुद्धि

शिशुपाल वध माघ

कला (Arts)

गुप्त युग में मूर्तिकला ने अपने-आप को गंधार शैली से मुक्त कर लिया। 

तत्कालीन मूर्तिकला का सबसे भव्य नमूना है सारनाथ से प्राप्त धर्मचक्र प्रवर्तन मुद्रा में बुद्ध की मूर्ति। 

उपरोक्त के अतिरिक्त बिहार के भागलपुर से मिली बुद्ध की ताम्रमूर्ति एवं मथुरा से मिली बुद्ध की खड़ी मूर्ति विशेष हैं। 

गुप्तकाल में हरेक शिक्षित एवं सुसंस्कृत व्यक्ति चित्रकला में दिलचस्पी रखता था। 

अजन्ता की गुफाओं के भित्तिचित्र उस युग के कलाकारों की अद्भुत प्रतिभा का परिचय देते हैं। अजंता शैली के अन्य चित्र मालवा के बाध नामक स्थान से भी प्राप्त हुए हैं। 

अजंता चित्रकारी

अजंता में 29′ गुफाएँ निर्मित हुईं जिनमें अब सिर्फ ‘6’ का अस्तित्व बचा है।

बची हुई गुफाओं में गुफा संख्या-16, 17 ही गुप्तकालीन हैं !

गुफा संख्या-16 में उत्कीर्ण मरणासन्न राज-कुमारी का चित्र विशेष रूप से प्रशंसनीय है।

गुफा संख्या 17 का चित्र चित्रशाला के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें बुद्ध की जीवनी से संबंधित चित्र उत्कीर्ण हैं

विज्ञान (Science)

गणित के क्षेत्र में नवीन सिद्धांतों का विकास हुआ तथा प्रसिद्ध गणितज्ञ आर्यभट्ट ने दशमलव पद्धति का आविष्कार किया। 

आर्यभट्ट ने पहली बार बताया कि पृथ्वी गोल है एवं अपनी धुरी पर घूमती है तथा पृथ्वी एवं चंद्रमा की स्थिति के कारण ग्रहण लगता है। 

आर्यभट्ट ने सूर्य सिद्धांत नामक ग्रंथ की रचना की जो नक्षत्र विज्ञान से संबंधित थी, यह ग्रंथ उपलब्ध नहीं है, उन्होंने गणित के ग्रंथ आर्यभट्टेयी की रचना की। 

ब्रह्मगुप्त इस काल के प्रसिद्ध गणितज्ञ थे। उन्होंने ब्रह्म सिद्धांत नामक ग्रंथ की रचना की। 

ब्रह्मगुप्त ने खगोलीय समस्याओं के लिए बीजगणित का प्रयोग करना आरंभ किया। 

वराहमिहिर गुप्तकाल के प्रसिद्ध खगोलशास्त्री थे। उन्होंने प्रसिद्ध ग्रंथों वृहत् संहिता एवं पंचसिद्धांतिका की रचना की। 

वृहत्संहिता में नक्षत्र विज्ञान, वनस्पति शास्त्र, प्राकृतिक इतिहास एवं भौतिक भूगोल से संबंधित विषयों का वर्णन दिया हुआ है। 

आर्यभट्ट के ग्रंथ पर भास्कर-ने इसी काल में टीका लिखी जो महाभास्कर्य,लघुभास्कर्य एवं भाष्य के रूप में प्रसिद्ध हैं।

चिकित्सा क्षेत्र में आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रंथ अष्टांग संग्रह की रचना बाग्भट्ट ने गुप्तकाल में ही की। 

आयुर्वेद के एक अन्य प्रसिद्ध ग्रंथ नवनीतकम् की रचना भी इसी काल में हुई। 

पाल्काप्य नामक पशु चिकित्सक ने ‘हाथियों’ के रोगों से संबंधित चिकित्सा हेतु हस्त्यायुर्वेद नामक ग्रंथ की रचना की। 

प्रसिद्ध चिकित्सक धन्वंतरि चंद्रगुप्त-II के दरबार में था। 

नागार्जुन इस काल का एक प्रसिद्ध चिकित्सक था, उसने रस चिकित्सा नामक प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की। 

इस काल में औषधि निर्माण के कार्य में तेजी आई। 

नागार्जुन ने इस काल में सिद्ध किया कि सोना, चाँदी, लोहा, तांबा आदि खनिज धातुओं में रोग निवारण की शक्ति विद्यमान है। 

धातु विज्ञान की इस युग में अत्यधिक तरक्की हुई। 

लगभग 1.5 हजार वर्ष पूर्व निर्मित दिल्ली में एक लौह-स्तंभ में अभी तक जंग नहीं लगा है, जो तत्कालीन धातुकर्म विज्ञान के काफी विकसित होने का संकेत है। 

इस प्रकार भौतिक एवं सांस्कृतिक श्रेष्ठता के कारण गुप्त युग को प्राचीन भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग (Golden Age) कहा गया है।

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