मुगल शासन-प्रणाली में केंद्रीयकृत नौकरशाही की प्रमुखता थी।
मुगल प्रशासन में सम्राट सभी विभागों का प्रधान होता था। उसे उदार निरंकुश कहा जा सकता है।
प्रशासन में बादशाह की मदद के लिए एक मंत्रिपरिषद होती थी, परंतु वह उसकी सलाह मानने को बाध्य नहीं था। ।
वकील-ए-मुतलक – प्रधानमंत्री (सम्राट की अनुपस्थिति में प्रमुख प्रशासनिक प्राधिकारी)
वह मंत्रिपरिषद का अध्यक्ष होता था। उसे मंत्रियों की नियुक्ति एवं पमुक्ति का अधिकार प्राप्त था।
अकबर के शासनकाल के ‘8वें’ वर्ष में ‘वकील’ के नीचे दीवान-ए-वजीरात-ए-कुल नामक मंत्री की नियुक्ति की गई। वकील-ए-मुतलक के नीचे निम्न मंत्री कार्य करते थे
दीवान-ए-वजीरात – राजस्व एवं वित्तीय मामलों का प्रबंधक।
मीर-बख्शी – सेना मंत्री। सभी मनसबों की नियुक्तियाँ तथा उनके वेतन आदि का लेखा-जोखा तैयार करना इसका कार्य था
मीर-बख्शी पे-मास्टर जनरल भी कहलाता था।
दीवान-ए-वजीरात की तरह वह भी मंत्रिपरिषद की बैठकों में भाग लेता था।
मीर आतिश (तोपचियों का अध्यक्ष), वकिया निगार अथवा वकिया नवीस (प्रांतों में नियुक्त प्रत्येक खबर मीर-बख्शी को देने वाला अधिकारी) तथा हुजूर बख्शी (प्रांतीय बख्शी) मीर बख्शी के मातहत होते थे।
सद्र-उस-सुदूर – धार्मिक धन-संपत्ति तथा दान विभाग का प्रधान अकबर काल तक संपूर्ण राज्य का केवल एक ‘सद्र’ होता था। परंतु, बाद में प्रांतों में भी इनकी नियुक्ति हुई।
मीर सामान – इसके अंतर्गत राजकीय गृह-विभाग आता था। वह शाही कारखाने की देख-भाल तथा उनके दारोगों एवं कर्मचारियों की नियुक्ति करता था। राजमहल एवं दरबार से संबंधित सभी कोष एवं भंडार उसके निरीक्षण में रहते थे।
काजी-उल-कुजात – प्रधान काजी। वह सम्राट के नीचे न्याय विभाग का प्रमुख अधिकारी होता था।
मुहतसिब – जनता के सदाचार-निरीक्षण करने वाले विभाग का प्रधान। वह मुसलमानों से कुरान के नियमों का पालन करवाता तथा जनता को शरियत के विरुद्ध कार्य करने से रोकता था |
दारोगा-ए-डाक चौकी – यह एक केंद्रीय पदाधिकारी था जो सूचना एवं गुप्तचर विभाग का प्रधान होता था। वह प्रायः वकील-ए-मुतलक (प्रधानमंत्री) के मातहत में कार्य करता था।
विषय सूची
अन्य महत्वपूर्ण केंद्रीय पदाधिकारी
मुगलकालीन भूमि-व्यवस्था
भूमि के प्रकार
मनसबदारी प्रथा
मुगलकालीन कृषक
मुगलकालीन मुद्राएँ
अन्य महत्वपूर्ण केंद्रीय पदाधिकारी
मीर मुंशी – सम्राट के पत्रों, आदेशों एवं फरमानों का लेखन करने वाला अधिकारी।
दारोगा-ए-टकसाल – सिक्के ढ़ालने वाला पदाधिकारी।
दीवान-ए-तान – वेतन विभाग का प्रमुख।
मुफ्ती – कानून की व्याख्या करने वाला प्रमुख अधिकारी।
मीर अदल – मुकदमों की पेशी में सहायता करने वाला पदाधिकारी।
बालाशाही – अंगरक्षक।
मीर बर्र – वन अधीक्षक।
साहीब – सूबा-प्रांतपति।
खानसामा – शाही-परिवार का प्रबंधक
व्युतात – शाही कारखाने का अधीक्षक।
मुशरिफ – राजस्व सचिव।
मीर अर्ज – बादशाह के पास भेजी गई अर्जियों की देख-रेख करने वाला अधिकारी।
मीरतोजक – उत्सवों का प्रबंधक।
वितिकच्ची – अमलगुजार का प्रमुख सहायक
मुगलों का प्रांतीय शासन केंद्रीय शासन का छोटा रूप कहा जा सकता है।
प्रांतों की संख्या विभिन्न शासकों के काल में भिन्न-भिन्न थी-अकबर के काल में 15, शाहजहाँ- के काल में 18 एवं औरंगजेब के काल में 20 |
प्रांतों का प्रमुख शासक अकबर के शासनकाल में सिपहसालार एवं उसके उत्तराधिकारियों के शासनकाल में सूबेदार अथवा नाजिम कहलाता था।
सूबेदार, की नियुक्ति बादशाह द्वारा वकील-ए-मुतलक की सिफारिश पर की जाती थी।
सूबेदार के प्रधान सहायक दीवान, बख्शी, फौजदार, कोतवाल, काजी, सद्र, आमिल, वितिकच्ची, फोतदार एवं वकियानवीस होते थे |
दीवान-यह महलों में राजस्व एकत्रित करता था। लेखा-जोखा करना तथा दान की भूमि की देख-भाल करना इसका प्रमुख उद्देश्य था।
मुगल काल में सूबेदार (गवर्नर) एवं दीवान में अंतर यह था कि, सूबेदार कार्यकारिणी (Executive Body) का प्रधान तथा दीवान राजस्व (Revenue) का प्रधान था।
बख्शी-यह प्रांतों में घटने वाली सभी प्रकार की घटनाओं की सूचना बादशाह को ‘मीर-बख्शी’ के माध्यम से देता था।
प्रांतीय न्याय विभाग का प्रमुख सदर काजी होता था।
प्रशासन को सुचारु रूप से चलाने के लिए मुगलकालीन प्रांतों को सरकारों (जिलों) में बांटा गया था।
सरकार (जिले) के प्रशासन हेतु फौजदार (जिलाधिकारी) की नियुक्ति होती थी।
फौजदार प्रांतीय शासक के आदेशानुसार जिले का प्रशासन नियंत्रित करता था।
सरकार के नीचे प्रशासन की छोटी इकाई परगना या महाल होती थी।
परगने का प्रबंध शिकदार के द्वारा होता था, उसके निम्न सहायक होते थे
आमिल – राजस्व इकट्ठा करने वाला कर्मचारी,
कानूनगो – यह, भूमि-सर्वेक्षण एवं राजस्व वसूली के प्रति जवाबदेह कर्मचारी था,
फोतदार – परगने का खजांची,
कारकन – क्लर्क (लिपिक)।
मुगल सेना निम्नलिखित विभागों में बंटी थी
पैदल सेना – मुगल काल में पैदल सेना अहशाम (युद्ध में भाग लेने वाले सैनिक) एवं सेहबंदी (मालगुजारी वसूलने वाले सैनिक) जैसे प्रकारों में बंटी हुई थी।
घुड़सवार – इस महत्वपूर्ण विभाग के 6 उपवर्गों का विवरण अबूल फजल द्वारा दिया गया है।
मुगलकालीन भूमि-व्यवस्था
अकबर ने 1582 में टोडरमल को दीन- ए-अशरफ (राजस्व प्रबंध का संयोजक) नियुक्त. किया। उसने राज्य के संपूर्ण जमीन को उपज के आधार निम्न श्रेणियों में बाँटा
पोलज – इस श्रेणी की भूमि काफी उपजाऊ होती थी, अतः यह प्रथम श्रेणी की भूमि मानी जाती थी। इसमें वर्ष में कम-से-कम दो| फसलें पैदा की जाती थी।
पड़ती – इस श्रेणी में वैसी भूमि रखी गयी थी| जो पोलज की तरह निरंतर उर्वरा नहीं थी। कुछ दिनों तक खेती करने के उपरांत इस भूमि की शक्ति नष्ट हो जाती थी। .
चाचर – यह तृतीय श्रेणी की भूमि थी, कुछ दिनों तक जोतने के बाद इस जमीन को 3-4 वर्षों के लिए पड़ती छोड़ दिया जाता था।
बंजर-यह भूमि की निम्न कोटि की श्रेणी थी, जिसमें उपज न के बराबर होती थी।
भूमि के प्रकार
खालसा – प्रत्यक्ष रूप से बादशाह के अधीन, भूमि खालसा भूमि कहलाता था। यह भूमि. संपूर्ण साम्राज्य का 20वाँ हिस्सा होती थी।
जागीर – वेतन के बदले दी जाने वाली भूमि को ‘जागीर भूमि’ कहा गया है।
सयूरगल (मदद-ए-माश) – अनुदान में दी गई लगानहीन भूमि। इसे मिल्क भी कहा जाता था।
तोपची एवं बंदूकची – तोपखाना विभाग मुगल सेना का सर्वश्रेष्ठ विभाग था। इसमें बंदूक चलाने वाले सैनिक होते थे।
उपरोक्त विभाग केंद्र सरकार के पदाधिकारी मीर आतिश के अंतर्गत आता था।
हस्ति सेना-हस्ति सेना की नियुक्ति शत्रु पर आक्रमण करने एवं रक्षा क्षेत्र में सर्वेक्षण के लिए किया जाता था। हस्ति सेना की 7 श्रेणियाँ थी। इनमें से प्रत्येक को दगवाया जाता था।
नौसेना-मुगल शासन में नौसेना विभाग का विकास नाममात्र का हुआ था और वह नदियों में चलाने योग्य नौकाएँ एवं लचर किस्म के युद्धपोतों तक सीमित था। मीर बहरी इस सेना का प्रधान होता था।
इतने विशाल प्रशासन के खर्च आदि का प्रबंध करने के लिए एक पृथक विभाग दीवान-ए-वजीरात की स्थापना की गई थी।
दीवान-ए-वजीरात का प्रधान दीवान होता था जिसके अधीन मुस्तौफी, दीवान-ए-खालसा,दीवान-ए-जागीर, दीवान-ए-वयूतात, तौजीह एवं मुशरिक आदि वरिष्ठ अधिकारी होते थे।
बाबर, हुमायूँ तथा औरंगजेब के कालों में जजिया कर एवं तीर्थयात्रा कर भी लिये जाते थे।
अकबर, जहाँगीर एवं शाहजहाँ के काल में उपरोक्त कर नहीं लगते थे।
मुगल सम्राट अकबर ने 1573 ई० में कर वसूलने के लिए करोड़ी नामक एक पदाधिकारी की नियुक्ति की |
मुगल काल में राजस्व वसूली की निम्न व्यवस्थाएँ प्रचलन में थी –
गल्ला बख्शी पद्धति-इस पद्धति के तहत के अंतर्गत किसानों को नकद रुपये कर के रूप में नहीं देने पड़ते थे। बल्कि इस पद्धति के तहत गल्ले की बटाई होती थी जो खेतबटाई, लंक बटाई, एवं रास बटाई तीन रूपों में प्रचलित थीं |
खेतों से फसल काटकर उनके ढेर लगा दिये जाते थे एवं विभिन्न पक्षों के बीच एक करार करके उनकी उपस्थिति में गल्ले का वितरण होता था, इसे रास बटाई कहा गया।
उपरोक्त के अलावा, जब्ती प्रणाली, नस्क प्रणाली (आधुनिक रैयतवाड़ी प्रथा के समान) एवं कानकुत प्रणाली (अबुल फजल रचित आइन-ए-अकबरी में वर्णित) आदि भी प्रचलन में थी।
मनसबदारी प्रथा
‘मनसब’ एक अरबी भाषा का शब्द है| जिसका अर्थं पद होता है। अकबर के शासनकाल में वे व्यक्ति जो शाही सेना में उपस्थित होते थे उनको सम्राट की ओर से ‘पद’ दिया जाता था उन्हें ही मनसब कहा जाता था –
इन पदों के प्राप्तकर्ताओं को मनसबदार कहा जाता था।
उनके पद, वेतन तथा शाही दरबार में उनके स्थान का पता उनके मनसब द्वारा ही लगाया जा सकता था। जात-जात एक ऐसी संख्या है जिससे मनसबदार का वर्ग (rank) निश्चित होता था।
सवार-किसी एक वर्ग (rank) में विभिन्न वेतन क्रमों में किसी एक का निरूपण करने के लिए एक पृथक श्रेणी में रखा जाता था,जिसका निर्धारण उसकी ‘सवार संख्या’ से| होता था।
श्रेणी-I: यदि जात एवं सवार संख्या समान हो (यदि जात संख्या एवं सवार संख्या दोनों .4000 हो, ऐसा मान लिया जाय)।
श्रेणी-II: यदि उसके सवार की संख्या जात की संख्या की आधी या उससे अधिक हो (यथा, 4000 जात, 2500 सवार) तो वह | द्वितीय श्रेणी का मनसबदार माना जाता था|
श्रेणी-III : यदि सवार की संख्या जात की संख्या की आधी से कम हो (4000 जात, 1500 सवार)।
मनसबदारी प्रथा मंगोल सरदार चंगेज खाँ द्वारा 1775 ई० में प्रतिपादित दशमलव प्रणाली पर आधारित थी।
मुगल प्रशासन में सर्वप्रथम अकबर ने यह प्रथा 1577 ई० में आरंभ की। |
जहाँगीर ने इसमें दु-अस्या एवं सिह-अस्पा पद्धति लागू की। प्रचलित थीं।
उपरोक्त पद्धतियों में जब्ती प्रणाली सर्वाधिक प्रचलित थी। इसके तहत प्रति बीघा उपज को एक मानक मानकर उसका एक-तिहाई हिस्सा राई (सरकार का राजस्व) के रूप में सरकारी खजाने में जमा कराया जाता था।
मुगलकालीन कृषक
अबुल फजल रचित आइन-ए-अकबरी से हमें मुगलकाल में कृषकों के निम्नलिखित स्तरों का ज्ञान होता है –
खुदकाश्त – वे खेतिहर जो उसी गाँव की जमीन में कृषि कार्य करते थे जिसके वे निवासी थे। उन्हें मुगलकालीन सरकारी दस्तावेजों में गारुघला या गावेति भी कहा गया है। किसानों का यह वर्ग वास्तव में स्वयं द्वारा नियंत्रित भू-क्षेत्र का स्वामी था।
पाहीकाश्त – कृषकों का दूसरा वर्ग ‘पाही’ अर्थात् बाहरी कहलाता था। इसके अंतर्गत ऐसे कृषक आते थे जो दूसरे गाँव में जाकर कृषि कार्य करते थे एवं वहाँ उनके अस्थाई निवास होते थे।
मुजारियन – कृषकों का तीसरा वर्ग ‘मौसमी अंश हिस्सेदार’ श्रमिकों का था। यह ऐसे कृषकों का वर्ग था जिनके पास उपयुक्त मात्रा में जमीन नहीं होती थी, तो वे खुदकाश्त कृषकों से किराये पर जमीन लेते थे।
आइने-दहसाला प्रणाली-मुगल सम्राट – अकबर ने अपने शासन के 24वें वर्ष (1580 ई०) में यह पद्धति लागू की। इसके अनुसार खेती की श्रेणियों तथा कीमतों के स्तरों के विषय में प्रत्येक परगने की 10 वर्षों की स्थिति (हाल-ए-दह-साला) का आकलन करने के बाद वार्षिक राजस्व के रूप में उसका 10वाँ हिस्सा निर्धारित किया जाता था।
मगल काल में भू-राजस्व की दर कुल राजस्व का 1/3 हिस्सा हुआ करती थी। औरंगजेब के शासनकाल में इसे बढ़ाकर 1/2 हिस्सा कर दिया गया।
अबुल फजल ने आइन-ए-अकबरी में साम्राज्य की अनुमानित आय 90 करोड़ रुपये आंकी है।
शासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थे। प्रत्येक गाँव (ग्राम) में प्रजातांत्रिक पंचायतें होती थीं। इन पंचायतों में परिवारों के प्रधान सदस्य हुआ करते थे।
ग्राम पंचायतों की छोटी-छोटी उप-समितियाँ शासन संबंधी विभिन्न कार्यों की देख-रेख करती थीं। नगर शासन व्यवस्था का प्रधान कोतवाल होता था। उसकी नियुक्ति केंद्र सरकार द्वारा होती थी।
न्याय-शासन के लिए अलग से न्याय पंचायतों की व्यवस्था की जाती थी।
भारतीय इतिहास में प्रशासन के मामले में शेरशाह को अकबर का अग्रगामी माना जाता है।
मुगलकालीन मुद्राएँ
मुगलों की राजस्व नीति (Revenue Policy) के परिणामस्वरूप एक मुद्रा-आधारित अर्थव्यवस्था विकसित हुई। इस व्यवस्था की नींव शेरशाह एवं अकबर ने डाली। अकबर ने लाहौर, अहमदाबाद,जौनपुर एवं पटना आदि में टकसालें स्थापित की।
आइन-ए-अकबरी के अनुसार 1595 ई० में लगभग 42 टकसालों में ताँबे के सिक्के, 14 टकसालों में चाँदी का रुपया एवं चार टकसालों में सोने की महरें ढाली गयीं। मुगलकालीन सिक्के निम्नवत् थे –
रुपया-रुपया चाँदी का होता था एवं इसका वजन 175 ग्रेन (1.5 रत्ती = 1 ग्रेन) होता था।
दाम-ताँबे का सिक्का जिसका वजन 32.3 ग्रेन होता था। (40दाम =1रुपया)
जीतल-मुद्रा-व्यवस्था में जीतल सबसे छोटा सिक्का होता था। यह ताँबे का बनता था।
रुपये अनेक आकारों में ढाले जाते थे। इनमें चालानी एवं जलाली महत्वपूर्ण थे।
‘चालानी’ का प्रचलन शेरशाह ने जबकि जलाली का प्रचलन अकबर ने किया था। |
मोहर – यह ‘सोने’ से निर्मित होता था, जो गोल एवं चौकोर आकारों में होता था। गोल मोहर इलाही एवं चौकोर मोहर लाल जलाली के नाम . से विख्यात थे।
शहंशाह-यह ‘स्वर्ण’ निर्मित सबसे भारी सिक्का था। इसका वजन 100 तोले के बराबर था जो मूल्य में लगभग 100 मोहरों के बराबर था।
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