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असली हीरो वाली बात

2001 की जनगणना रिपोर्ट पर नजर डालें, तो इंडिया में 21 मिलियन से ज्यादा लोग किसी न किसी तरह की डिसेबिलिटी के शिकार हैं यानी आबादी का करीब 2.1 परसेंट हिस्सा फिजिकली चैलेंज्ड है.

2001 की जनगणना रिपोर्ट पर नजर डालें, तो इंडिया में 21 मिलियन से ज्यादा लोग किसी न किसी तरह की डिसेबिलिटी के शिकार हैं यानी आबादी का करीब 2.1 परसेंट हिस्सा फिजिकली चैलेंज्ड है। ये एजुकेशन से लेकर जॉब, हर तरह की प्रॉब्लम का सामना कर रहे हैं। ऐसे में अगर आप इन लोगों के जीवन में उत्साह और खुशहाली लाना चाहते हैं, तो उनके लिए या उनसे जुडे क्षेत्रों में ट्रेनिंग लेकर अपना कामयाब करियर बना सकते हैं। इन्हीं में से एक फील्ड है ऑक्यूपेशनल थेरेपी।

थेरेपी फॉर मोटिवेशन

फिजिकली डिसेबल्ड लोगों के ट्रीटमेंट का यह एक कारगर तरीका है। इसके अच्छे रिजल्ट हमारे सामने आ रहे हैं। इस थेरेपी में शारीरिक एवं मानसिक तौर पर अक्षम लोगों को विभिन्न प्रकार की एक्सरसाइज, मोटिवेशन, एक्टिविटीज आदि से आत्मनिर्भर बनाया जाता है। इसके लिए कुछ विशेष उपकरण भी डेवलप किए जाते हैं, जो ऐसे लोगों के रोजमर्रा के काम में उनकी हेल्प कर सकें।

कोर्सेज ऐंड एलिजिबिलिटी

बैचलर इन ऑक्यूपेशनल थेरेपी कोर्स में एंट्री के लिए फिजिक्स, केमिस्ट्री, बायोलॉजी और इंग्लिश सब्जेक्ट्स के साथ हायर सेकंडरी में मिनिमम 50 परसेंट मा‌र्क्स होने चाहिए। बैचलर डिग्री का कोर्स पूरा करने के बाद कैंडिडेट चाहे तो मास्टर ऑफ ऑक्यूपेशनल थेरेपी का कोर्स भी कर सकता है। इस सब्जेक्ट में पीएचडी का ऑप्शन भी खुला है, लेकिन इसे कराने वाले इंस्टीट्यूट अभी कम हैं।

सेलेक्शन प्रॉसेस


बैचरल इन ऑक्यूपेशनल थेरेपी कोर्स में एंट्री के लिए कैंडिडेट को कॉमन एंट्रेंस टेस्ट देना होता है। इसमें फिजिक्स, केमिस्ट्री, बायोलॉजी, जीके और इंग्लिश पर आधारित क्वैश्चन्स पूछे जाते हैं। इस एग्जाम में कॉम्पिटिशन काफी टफ होता है। बिना प्रॉपर तैयारी के इसमें सक्सेस नहीं मिलती है।

अपॉच्र्युनिटीज हैं काफी

ऑक्यूपेशन थेरेपिस्ट की आज काफी डिमांड है। गवर्नमेंट और प्राइवेट हॉस्पिटल्स में तो जॉब के चांस होते ही हैं लेकिन अगर आप चाहें तो प्राइवेट प्रैक्टिस करके भी अच्छी-खासी कमाई कर सकते हैं। इससे रिलेटेड रिसर्च एवं टीचिंग फील्ड में भी अच्छा स्कोप है।

स्किल्स नीडेड

अगर ऑक्यूपेशनल थेरेपिस्ट में पेशेंस और क्रिएटिविटी नहीं है, तो वह कभी सक्सेस नहीं हो सकता। इसमें हर पेशेंट के ट्रीटमेंट के लिए आपको अलग-अलग ट्रिक यूज करनी पड सकती है। एक्सपर्ट को अपनी क्रिएटिविटी से नई ट्रिक्स भी खोजनी पडती हैं। अगर आप यह कर सकते हैं, तो यह फील्ड आपके लिए काफी अच्छा साबित होगा।

सैलरी

गवर्नमेंट सेक्टर में तय स्केल पर सैलरी दी जाती है जो नियमों के आधार पर बढती है। वहीं अच्छे प्राइवेट अस्पतालों और बडे एनजीओ में शुरुआती वेतन तकरीबन 16 हजार रुपये महीने या इससे अधिक होता है। निजी प्रैक्टिस करने वाले भी 20 से 25 हजार रुपये प्रतिमाह कमा ही लेते है।

इंस्टीट्यूट

-गुरु गोविंद इंद्रप्रस्थ यूनिवर्सिटी, दिल्ली

-आइएसआइसी इंस्टीट्यूट ऑफ रीहैबिलिटेशन साइंसेज, नई दिल्ली

-डॉ. तमिलनाडु एमजीआर यूनिवर्सिटी, चेन्नई

-महाराष्ट्र यूनिवर्सिटी ऑफ हेल्थ साइंस, नासिक मेक कॉन्फिडेंस

फिजिकली डिसेबल पेशेंट के ट्रीटमेंट में सबसे पहले उसका विश्वास जीतना जरूरी है। पेशेंट आप पर विश्वास करने लगा तो उसके कॉन्फिडेंस लेवल को बढाना मुश्किल नहीं होगा। अगर पेशेंट में कॉन्फिडेंस आ गया और उसे लगने लगा कि वह ठीक हो सकता है तो समझिए उसका आधा ट्रीटमेंट सक्सेस हो गया।

स्पेशल एजुकेशन


सामान्य लोगों को तो सभी पढा लेते हैं, लेकिन चैलेंज वहां होता है जहां हमारे सामने स्टूडेंट के रूप में ऐसे लोग हों जो फिजिकली एवं मेंटली हमसे कमजोर होते हैं। स्पेशल एजुकेशन कुछ ऐसा ही काम है। इसमें चैलेंज तो है, लेकिन इस फील्ड में जो संतुष्टि मिलती है, वह किसी दूसरी फील्ड में शायद ही हासिल हो। आप भी कुछ ऐसा ही करना चाहते हैं, तो स्पेशल एजुकेशन को करियर के रूप में चुन सकते हैं।

डिफरेंट ट्रेनिंग

कई रिसर्च से यह बात सामने आ चुकी है कि हर इंसान शारीरिक एवं मानसिक रूप से एक-दूसरे से भिन्न होता है। इनमें से कुछ फिजिकली या मेंटली डिसेबल्ड भी होते हैं। ऐसे लोगों को सामान्य चीजों को समझने में भी काफी प्रॉब्लम होती है या कहें कि कई बार लाख प्रयास के बाद भी वे चीजों को समझ ही नहीं पाते। ऐसे लोगों को सामान्य तरीके से पढाना भी संभव नहीं है। इसके लिए अलग तरह की ट्रेनिंग की जरूरत होती है। स्पेशल एजुकेशन के अंतर्गत स्टूडेंट्स को यही सिखाया जाता है। इस एजुकेशन का मेन प्वॉइंट फिजिकली डिसेबल्ड लोगों के हावभाव, शारीरिक हरकतों को देखकर उनके मन में क्या चल रहा है, सीखना होता है। इस काम को जो प्रोफेशनल करते हैं, उन्हें ही स्पेशल एजुकेटर कहते हैं।

एंट्री के लिए जरूरी

अगर आप इस फील्ड में एंट्री करना चाहते हैं तो आपके पास ऐसे लोगों की साइकोलॉजी को समझना जरूरी है। इसमें डिप्लोमा लेवल के कई कोर्स हैं, इन्हें करके भी इस फील्ड से जुड सकते हैं। अगर आप चाहें, तो इसमें बैचलर एवं मास्टर डिग्री का कोर्स भी कर सकते हैं और चाहें तो एमफिल, पीएचडी, बीएड भी किया जा सकता है। ग्रेजुएशन कोर्स के लिए सीनियर सेकंडरी और मास्टर कोर्स के लिए इसी सब्जेक्ट में ग्रेजुएशन होना चाहिए।

पर्सनल स्किल्स

अगर आप सामाजिक सरोकार से जुडे इस क्षेत्र से जुडना चाहते हैं, तो आपके पास अच्छी कम्युनिकेशन स्किल्स भी होनी चाहिए। जरा-जरा सी बात पर टेंपर लूज करने वालों के लिए इस फील्ड में कोई जगह नहीं है। लिस्निंग की अच्छी कैपेसिटी होना और हर नई चीज को सीखने की चाहत है, तो आप इस फील्ड में एंट्री करके बहुत आगे बढ सकते हैं।

स्पेशलाइजेशन का इंपॉर्टेस

स्पेशल एजुकेशन की फील्ड में आपके सामने विभिन्न एरियाज में स्पेशलाइजेशन के भी चांस होते हैं। स्टूडेंट चाहे तो स्पीच ऐंड लैंग्वेज थेरेपिस्ट, साइकोलॉजिस्ट, स्कूल काउंसलर, सोशल वर्कर, एजुकेशनल डाइग्नोस्टिशियन, म्यूजिक थेरेपिस्ट, रिक्रिएशनल थेरेपिस्ट आदि ब्रांचेज में विशेषज्ञता हासिल कर सकते हैं। करियर के नजरिए से ये सभी ब्रांचेज लगातार ग्रो कर रहे हैं।

जॉब ऑप्शन्स

आबादी लगातार बढ रही है और इसी के साथ बढ रही है फिजिकली और मेंटली डिसेबल्ड लोगों की तादाद। ऐसे में इस फील्ड में स्पेशल एजुकेशन देने वालों की काफी जरूरत है। इससे रिलेटेड कोर्स करके स्टूडेंट गवर्नमेंट सेक्टर के साथ-साथ प्राइवेट सेक्टर्स में भी जॉब कर सकते हैं। एनजीओ और रिसर्च की फील्ड में भी स्कोप लगातार बढते जा रहे हैं। हालांकि रिसर्च की फील्ड में उन्हीं लोगों को प्रॉयरिटी दी जाती है, जो इस सब्जेक्ट से रिलेटेड एरियाज के विशेषज्ञ हो जाते हैं। इसकी अच्छी नॉलेज रखने वाले एक्सप‌र्ट्स की विदेश में भी लगातार डिमांड बनी हुई है।

डिग्री से सक्सेस नहीं

स्पेशल एजुकेटर और सीनियर कंसल्टेंट तनु राजपूत इस फील्ड के बारे में बताते हुए कहती हैं कि यहां केवल डिग्री के बल पर लंबे समय तक जॉब में बने रहना संभव नहीं है। जब तक आप पेशेंस के साथ पूरी ईमानदारी से काम नहीं करेंगे, आपकी क्वॉलिटी नहीं निखरेगी और अच्छा रिजल्ट भी सामने नहीं आएगा। परफॉर्मेस अच्छी नहीं होगी, तो आगे बढने के रास्ते अपने आप बंद होते चले जाएंगे और कुछ समय बाद कोई दूसरा आकर आपकी जगह ले लेगा।

इंस्टीट्यूट्स

-रीहैबिलिटेशन काउंसिल ऑफ इंडिया, नई दिल्ली

-आंध्र यूनिवर्सिटी, विशाखापत्तनम

-पंडित दीनदयाल उपाध्याय इंस्टीट्यूट फॉर फिजिकली हैंडिकैप्ड, नई दिल्ली

-बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी, वाराणसी

मेंटल ट्रेसिंग की जरूरत

स्पेशल एजुकेशन की फील्ड से आपको जुडना है तो सबसे पहले आपको बच्चों की मानसिकता को समझने की कोशिश करनी होगी। उनके मेंटल लेवल को ट्रेस करने की कला सीख ली तो पूरे करियर के दौरान किसी भी तरह की परेशानी आपके सामने न आए।

तनु राजपूत सीनियर कंसल्टेंट, स्पेशल एजुकेशन, होली चाइल्ड इंटरवेशन सेंटर, नई दिल्ली

ऑप्शन और भी हैं..

एक्यूप्रेशर में करियर

एक्युप्रेशर एक ऑल्टरनेटिव मेडिसिन टेक्नोलॉजी है जो बहुत हद तक एक्यूपंचर की तरह ही काम करती है। इसमें फिजिकली डिसेबल्ड लोगों का ट्रीटमेंट किया जाता है। इस टेक्नोलॉजी में बॉडी के कुछ चुने हुए प्वॉइंट्स पर प्रेशर द्वारा कमजोर हो रहे या हो चुके अंगों में नई जान डाली जाती है। सक्सेस रिजल्ट को देखते हुए इसे एक अच्छी फील्ड माना जा रहा है।

कई तरह के कोर्स

एक्यूपे्रशर से रिलेटेड कई कोर्स इंडिया में चलाए जा रहे हैं। इनमें से प्रमुख हैं: सर्टिफिकेट कोर्स इन एक्यूपे्रशर, डिप्लोमा इन एक्यूप्रेशर थेरेपी, मास्टर डिप्लोमा इन एक्यूप्रेशर थेरेपी आदि। अधिकतर कोर्सेज में एंट्री के लिए मिनिमम क्वॉलिफिकेशन हायर सेकंडरी पास है।

जॉब आप्शन ऐंड सैलरी


हेल्थ सेक्टर में काम कर रहे किसी ऑर्गेनाइजेशन के साथ जुडकर काम करने के अवसर तो रहते ही हैं, साथ ही प्राइवेट प्रैक्टिस का ऑप्शन भी खुला है। सैलरी इस बात पर डिपेंड करती है कि आप किस ऑर्गेनाइजेशन के साथ जुडकर काम कर रहे हैं। प्राइवेट प्रैक्टिस करने वाले कम से कम 15 से 20 हजार रुपये प्रतिमाह कमा सकते हैं।

मेन इंस्टीट्यूट्स

-वेलनेस नेचर केयर ऐंड योगा सेंटर, नई दिल्ली

-इंडियन काउंसिल फॉर एक्यूप्रेशर योगा, बिहार

-एक्यूप्रेशर रिसर्च, ट्रेनिंग ऐंड ट्रीटमेंट इंस्टीट्यूट, राजस्थान

म्यूजिक थेरेपी

म्यूजिक थेरेपी के बारे में कई रिसर्च से सामने आया है कि इसका लाभ उन लोगों को ज्यादा मिलता है जिनका किसी कारण से आत्मविश्वास खो चुका है और मेमोरी कमजोर हो गई है। इस हालात से गुजर रहे बहुत से लोग बोलने में अटकने लगते हैं। म्यूजिक थेरेपी ऐसे लोगों के आत्मविश्वास को वापस लाकर उन्हें फिर से सामान्य रूप से कम्युनिकेट करने के लिए प्रेरित करती है।

कोर्सेज

कई ऑर्गेनाइजेशन इससे रिलेटेड पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा इन क्लीनिकल म्यूजिक थेरेपी, ऑन लाइन सर्टिफिकेट कोर्स, सर्टिफिकेट कोर्स आदि कराती हैं। इस तरह के कोर्सेज में एंट्री के लिए अधिकतर इंस्टीट्यूट्स ने मिनिमम क्वॉलिफिकेशन बैचलर डिग्री निर्धारित है।

जॉब ऑप्शंस

इससे रिलेटेड कोर्स करने के बाद किसी एनजीओ, इस फील्ड में काम कर रहे हेल्थ ग्रुप्स आदि के साथ वर्क कर सकते हैं। अपना खुद का क्लीनिक खोलकर डिसेबिल्ड लोगों की हेल्प का ऑप्शन तो हमेशा आपके सामने खुला रहेगा।

इंस्टीट्यूट

-द म्यूजिक थेरेपी ट्रस्ट इंडिया, नई दिल्ली

-चेन्नई स्कूल ऑफ म्यूजिक थेरेपी, चेन्नई

-मुंबई एजुकेशनल ट्रस्ट, मुंबई

-इंडियन एसो. ऑफ म्यूजिक थेरेपी, नई दिल्ली

अरोमा थेरेपी


अरोमा थेरेपी मानसिक रूप से डिसेबल्ड लोगों के लिए कारगर साबित होती है। इसमें खास तरह के पेड-पौधों की जडों, तनों, फूलों और पत्तियों से निकले अर्क का प्रयोग किया जाता है। इन चीजों की खुशबू पेशेंट के मस्तिष्क के लिंबिक सिस्टम पर असर डालती है और वह खुद को सामान्य लोगों जैसा बनाने की कोशिश करता है। यह ट्रीटमेंट उनके लिए यूजफुल है जिनकी मानसिक क्षमता किसी हादसे से कमजोर हो जाती है।

कोर्स और एलिजिबिलिटी

इसमें डिप्लोमा और सर्टिफिकेट कोर्स तो हैं ही, साथ ही पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा इन अरोमा थेरेपी का आप्शन भी मौजूद है। अधिकतर कोर्सेज के लिए बैचलर डिग्री मांगी जाती है।

जॉब ऑप्शन

इससे रिलेटेड कोर्स करने के बाद भी रोजगार का सबसे बढिया ऑप्शन खुद का क्लीनिक खोलकर लोगों की मदद करना है। जॉब के तौर पर इस तरह का ट्रीटमेंट दे रहे ग्रुप के साथ भी जुडा जा सकता है।

मेन इंस्टीट्यूट

-इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ अरोमा थेरेपी ऐंड कॉस्मेटोलॉजी, कोलकाता

-द ग्लोबल इंस्टीट्यूट ऑफ अरोमा थेरेपी, कोलकाता

हो कमिटमेंट

फिजिकली, मेंटली और डेवलपमेंट डिसएबिलिटीज के ट्रीटमेंट के कई तरीके सामने आए हैं। सभी में अच्छे कमिटमेंट वाले प्रोफेशनल्स की जरूरत है। जो यूथ करियर के साथ-साथ सोसायटी के लिए कुछ करना चाहते हैं, ऐसे लोगों की काफी जरूरत है।

डॉ. अर्पण कुमार

सेंटर फॉर चाइल्ड ऐंड एडेलोसेंट वेलबीइंग, नई दिल्ली

वूमन ऑन मिशन

अर्जुन अवॉर्ड विजेता, इंटरनेशनल पैरा एथलीट कॉम्पिटिशन 2012 की एशियन रिकॉर्ड होल्डर, मोटिवेशनल स्पीकर, स्विमर, कोच और लिम्का समेत कई दूसरे अवॉ‌र्ड्स की विनर दीपा मलिक किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। लेकिन यहां सवाल है, वॉट्स नेक्स्ट? खुद दीपा से जवाब मिला, 2014 का एशियन गेम्स और फिजिकली चैलेंज्ड स्पो‌र्ट्सपर्सस के लिए एक एकेडमी का निर्माण। एक ऐसी एकेडमी जहां से कई और टैलेंटेड प्लेयर्स द­ीपा मलिक बन सकें। दीपा का मानना है कि पैरा स्पो‌र्ट्स को जितनी गंभीरता से लिया जाना चाहिए, उतना नहीं लिया जा रहा है। जबकि रूरल बेस्ड टैलेंट को टैप करके स्ट्रॉन्ग मेडल विनिंग बेस तैयार किया जा सकता है।

एथलीट विद अ डिफरेंस

पैराप्लेजिक और सिर्फ अपर बॉडी के सहारे इतना कुछ हासिल करने वालीं 43 वर्षीय दीपा मलिक पहली भारतीय पैराप्लेजिक वूमन बाइकर, स्विमर और कार रैलिस्ट हैं जिन्होंने नेशनल ही नहीं, इंटरनेशल लेवल पर देश को गर्व करने का मौका दिया है। तीन ट्यूमर सर्जरी के बाद 36 साल की एज में स्पो‌र्ट्स में अपना करियर शुरू करने वाली दीपा देश की सबसे उम्रदराज फिजिकली चैलेंज्ड एथलीट भी हैं जिन्हें 42 साल की एज में अर्जुन अवॉर्ड से नवाजा गया है। दीपा कहती हैं कि ये सब उनकी जिद का नतीजा है कि उन्होंने इतने बडे फिजिकल चैलेंज के बावजूद हमेशा एक नया गोल सेट किया और फिर उसे अचीव कर दिखाया। इसमें एफ-53 कैटेगरी में जैवलिन और शॉटपुट का एशियन रिकॉर्ड भी शामिल है। दीपा का ट्यूमर मैनेजमेंट ट्रीटमेंट चल रहा है, लेकिन इरादे अब भी पक्के हैं।

पैशन फॉर मोटरबाइक्स

अजमेर के सोफिया कॉलेज से इंग्लिश ऑनर्स ग्रेजुएट दीपा मलिक ने 2009 में स्पेशल बाइक (4-व्हील चेयर्ड बाइक) चलाकर और दस दिनों में 9 हाई ऑल्टीट्यूड पासेज के बीच से 3000 किलोमीटर लंबा को-ड्राइव कर लिम्का बुक ऑफ रिकॉ‌र्ड्स में अपना नाम दर्ज कराया था। फिर रेड द हिमालयाज- कार रैली में पार्टिसिपेट कर और साल 2010 में डेजर्ट स्टॉर्म रैली में पहली पैराप्लेजिक वूमन ड्राइवर के तौर पर शामिल होकर अपने साहस का परिचय दिया था। इनके इसी जज्बे और हिम्मत ने मोटर स्पो‌र्ट्स की फील्ड में इन्हें कई अवॉर्ड भी दिलाए हैं। दीपा कहती हैं, ये सब कुछ उनके बाइक के पैशन की वजह से हुआ जो उन्हें बचपन से था। उन्होंने बताया कि शुरुआत लूना स्कूटर से हुई थी। फिर बाहर लडकों से बाइक मांगकर चलाया, गांव में ट्रैक्टर, जीप और बुलेट सब कुछ चला लेती थीं। यही नहीं, 19 साल की एज में बाइक से प्यार होने के कारण ही शादी भी की, उस शख्स से जो खुद बाइक चलाने का शौकीन था। दीपा के पति आर्मी के एक रिटायर्ड ऑफिसर हैं। वैसे दीपा का कहना है कि आज वे जो भी हैं, उसके पीछे उनके पति का ही हाथ है। इसके अलावा अपनी दोनों बेटियों से भी वे काफी इंस्पिरेशन लेती हैं।

टफ डेली रूटीन

दीपा मलिक की सुबह की शुरुआत एक से डेढ घंटे के स्ट्रेचिंग एक्सरसाइज से होती है। फिर फिजियो होता है। इसके बाद वह ब्रेकफास्ट बनाती हैं। म्यूजिक सुनती हैं। उन्हें स्पेशल हाइजीन रूटीन फॉलो करना होता है। दिन में एक बार ब्लाडर को कंप्लीट खाली करना होता है। दीपा ने बताया कि उन्हें बाउल, थायरॉयड जैसी दूसरी प्रॉब्लम्स से अक्सर जूझना पडता है। इसलिए कितनी डाइट लेनी है, कितना पानी पीना है, इसका ध्यान रखना होता है। इन्होंने अपने घर के इंटीरियर में व्हील चेयर के मुताबिक मॉडिफिकेशंस कर रखे हैं। इसी तरह फैमिली मेंबर्स के रोल फिक्सड हैं। दीपा खुद ऑनलाइन शॉपिंग और दूसरे जरूरी काम करती हैं। इसके साथ ही इवेंट्स, सेमिनार्स, इंटरनेशनल टूर पर जाना होता है, जिनके लिए वह खुद से फंड रेज करती हैं ताकि फैमिली पर किसी तरह का फाइनेंशियल बर्डन नहीं पडे। हां, वे दिन में एक बार अपनी गाडी से बाहर जरूर जाती हैं।

कहानियों से मॉरल सपोर्ट

दीपा ने बताया कि जब छह साल की थीं, तो पहली बार पैरालिसिस का अटैक हुआ था। तीन साल उन्हें हॉस्पिटल और बीमारी से उबरने में निकल गए। लेकिन इन सालों में कहानियों ने न सिर्फ इनका एंटरटेनमेंट किया, बल्कि मॉरल सपोर्ट भी दिया। इनके अंदर आज जो भी पॉजिटिविटी है, उसमें कहानियों का बडा रोल है। दीपा कहती हैं, यंग एज में मैंने लाइफ के बडे लेसंस ले लिए। बीमारी ने अच्छा इंसान बनाना सिखाया। ये अमिताभ बच्चन की एक सीख को भी नहीं भूलती हैं कि सीखना बंद तो जीतना बंद। व्हील चेयर इन्हें फ्रीडम देता है।

फ्रेंड्स का इंफ्रास्ट्रक्चर

सरकार ने भले ही फिजिकली चैलेंज्ड लोगों के लिए प्रॉपर इंफ्रास्ट्रक्चर अवेलेबल नहीं कराया हो, लेकिन दीपा ने फ्रेंड्स का इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार कर रखा है जो इन्हें मौके पर हेल्प करता रहता है। इनमें बाइकर्स कम्युनिटी भी एक है। दीपा का कहना है कि वे लाइफ को एक बोनस की तरह लेती हैं। हर दिन इनके लिए एक नया चैलेंज होता है। इससे टैकल करने के लिए ऑनलाइन सपोर्ट ग्रुप काफी मददगार होता है। दीपा का कहना है कि उन्हें कभी किसी से मदद मांगने में शर्म महसूस नहीं होती है।

दीपा को रोडीज शो में बाइक चलाता देख फिजिकली चैलेंज्ड आदित्य इतने इंस्पायर हो गए कि वे अब खुद कश्मीर से कन्याकुमारी की यात्रा पर निकल चुके हैं। वहीं, जिंदल स्टील प्लांट्स ने अपने सारे यूनिट्स को डिसएबल फ्रेंडली बनाने का फैसला किया है..

मौका मिले कर दिखाएंगे

अभिषेक ठाकुर की आंखों में रोशनी, तो नहीं है, लेकिन फिर भी वे शिक्षा के जरिए खुद और अपने स्टूडेंट्स की लाइफ को रोशन करने का काम कर रहे हैं। दिल्ली यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ सोशल वर्क में असिस्टेंट प्रोफेसर अभिषेक के अंडर में सात फील्ड स्टूडेंट्स पढाई कर रहे हैं। इनके लिए वे एक गाइड, एक फ्रेंड और एक फैमली मेंबर की तरह सब कुछ हैं।

छोटी उम्र में बडा सफर

बचपन से नेत्रहीनता के शिकार अभिषेक ठाकुर के लिए यह सब करना बिल्कुल भी आसान नहीं था। लेकिन मन में विश्वास था कि कुछ करके दिखाना है, बस रास्ता बनता गया। ये जब चौथी क्लास में थे, तो मध्य प्रदेश के एक छोटे से गांव से दिल्ली आना हुआ। यहां जेपीएम सीनियर सेकंडरी स्कूल से हायर सेकंडरी किया और फिर 2009 में सेंट स्टीफंस कॉलेज से ग्रेजुएशन। अभिषेक ने बताया कि ब्लाइंड स्कूल जैसे स्पेशल इंस्टीट्यूशन से मेनस्ट्रीम कॉलेज में आकर पढाई करने के कई सारे चैलेंजेज थे, जिन्हें उन्होंने एक्सेप्ट किया।

एजुकेशन से आया कॉन्फिडेंस

अभिषेक ने बताया कि अक्सर किसी भी फिजिकली या विजुअली चैलेंज्ड को देखकर लोगों का नजरिया तंग हो जाता है। उन्हें विश्वास ही नहींहोता है कि ऐसे लोग भी लाइफ में बहुत कुछ कर सकते हैं। वे कहते हैं, मेरी फैमिली एजुकेशन की वैल्यू को समझती थी, इसलिए जब उन्होंने मेरी इच्छा जानी तो पढाई के लिए दिल्ली भेज दिया। अभिषेक ने ग्रेजुएशन के बाद टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज से मास्टर्स किया। इस दौरान इन्होंने, एलऐंडटी के वेल्फेयर डिपार्टमेंट, इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ मैनेजमेंट और ऑब्जर्वेशन होम में फील्ड इंटर्नशिप किया। अभिषेक ने डब्ल्यूएचओ के साथ भी करीब एक साल का इंटर्नशिप किया है, जहां इन्हें काफी अच्छा रिस्पॉन्स भी मिला। पोस्टग्रेजुएशन में इनके एकेडिमिक रिकॉर्ड और बेस्ट फील्ड वर्क को देखते हुए गोल्ड मेडल से नवाजा गया था। इसके साथ ही इन्हें बेस्ट स्टूडेंट का अवॉर्ड भी मिला था। यही वजह रही कि अभिषेक को स्कोर फाउंडेशन में रिसर्चर की जॉब ऑफर हुई। वहां इन्होंने करीब एक साल काम किया। फिलहाल, अभिषेक जॉब के साथ-साथ टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज से वॉटर ऐंड सैनिटेशन इन पब्लिक हेल्थ में एमफिल कर रहे हैं।

सोशल एटीट्यूड, एक चैलेंज

अभिषेक कहते हैं कि फिजिकली चैलेंज्ड लोगों को सिर्फ अपॉच्र्युनिटी देने की जरूरत है, फिर देखिए कि वे क्या नहीं कर सकते हैं। लेकिन मुश्किल है कि सोसायटी का एटीट्यूड इन्हें लेकर पॉजिटिव नहीं होता है, उनकी माइंड सेट लिमिटेड होती है, एक्सपेक्टेशंस लिमिटेड होते हैं और वे फिजिकली चैलेंज्ड लोगों को सिर्फ सहानुभूति के नजरिए से देखते हैं। उनके काम, उनके एफ‌र्ट्स को ठीक से रिकग्नाइज तक नहीं किया जाता है। जॉब मार्केट में भी इतना ज्यादा कॉम्पिटिशन है कि नौकरी मिलने में सालों लग जाते हैं। इन सबके अलावा इंफ्रास्ट्रक्चर, ट्रांसपोर्टेशन जैसी कई बेसिक प्रॉब्लम्स हैं जिनसे हर वक्त जूझना पडता है।

पिता से मोटिवेशन

अभिषेक ठाकुर को सबसे ज्यादा मोटिवेशन अपने पिता से मिलती है, जो खुद एक ट्रेडिशल सोशल वर्कर के साथ-साथ मध्य प्रदेश के एक गांव में ब्लाइंड स्कूल चलाते हैं और उन बच्चों को जीने की राह दिखाते हैं। पिता के इसी संस्कार की वजह से अभिषेक अपनी लाइफ को लेकर काफी पॉजिटिव हैं। दिल्ली जैसे शहर में इंडिपेंडेंटली रहते हैं। खुद से चाय और ब्रेकफास्ट बनाते हैं। कॉलेज जाते हैं। इतना ही नहीं, आगे के सपने भी देखते हैं। उनका सपना है नीदरलैंड स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ नीदरलैंड से पीएचडी करना। इसके अलावा उन्हें म्यूजिक सुनने, ट्रैवल करने और इवेंट्स ऑर्गनाइज करने का भी शौक रहा है। सेंट स्टीफंस में उन्होंने दृष्टिकोण और स्पीक ऑन नाम से सक्सेसफुल कल्चर इवेंट्स किए थे।

जिंदगी से नहींमानी हार

दिल्ली के मालवीय नगर से रोज 40 किलोमीटर का लंबा सफर तय करके गाजियाबाद आना किसी के लिए भी ईजी नहीं है। लेकिन 26 साल के ब्लाइंड एक्यूप्रेशर स्पेशलिस्ट गुरचरण सिंह उर्फ गुलशन ऐसा रोज करते हैं। वे मेट्रो और दूसरे कनवेंस लेकर अपने डेस्टिनेशन तक पहुंचते हैं। उन्हें जरा भी फर्क नहीं पडता कि वे ब्लाइंड हैं। अपने प्रोफेशन और क्लाइंट्स को अच्छी तरह से हैंडल करते हैं और लाइफ को उम्मीद भरी नजरों से देखते हैं।

हादसे ने बदली जिंदगी

साल 2000 में गुरचरण अपने दोस्तों के साथ एक ट्रेकिंग ट्रिप पर दार्जिलिंग गए थे। वहीं, माउंटेनियरिंग के दौरान किसी की जान बचाते हुए उन्हें चोट लग गई। ट्रीटमेंट हुआ, लेकिन उनकी आंखों की रोशनी नहीं रही। एक शख्स जिसने दुनिया को देखा हो, उसके सामने अचानक से अंधेरा छा गया। लेकिन फ्रेंड्स, फैमिली और खासकर उनकी छोटी बहन ने काफी सपोर्ट किया।

इंडिपेंडेंट होने की कोशिश

ब्लाइंड होने के बाद गुरचरण की पहली प्रॉयरिटी खुद के पैरों पर खडा होना था। इसके लिए पढाई जरूरी थी। उन्होंने हायर सेकंडरी किया। ग्रेजुएशन में एडमिशन भी लिया, लेकिन उसे पूरा नहीं कर सके। फिर दिल्ली के ब्लाइंड रिलीफ एसोसिएशन से तीन महीने का एक्यूप्रेशर का कोर्स कर काम करना शुरू कर दिया। पहला जॉब एक वूमन हेल्थ क्लब में मिला। डोर टु डोर सर्विस दी। काफी स्ट्रगल के बाद साल 2010 में पुष्पांजलि क्रॉसले हॉस्पिटल में जॉब मिली। आज ये यहीं काम कर रहे हैं।

कहते हैं, जॉब की कमी से अपने सपनों का पूरा करना काफी टफ होता है। फिर भी वे कोशिश कर रहे हैं कि फाइनेंशियली स्टेबल हों और फैमिली के साथ खुशी-खुशी रह सकें।

डिसएबल्ड को जॉब


विजुअली और फिजिकली चैलेंज्ड लोगों के लिए जॉब अपॉच्र्युनिटी पैदा करने के मकसद से 2007 में बैरियर्स ब्रेक टेक्नोलॉजी की शुरुआत हुई थी। आज इस कंपनी के करीब 75 परसेंट एम्प्लॉइज किसी न किसी रूप में फिजिकली चैलेंज्ड हैं। इतना ही नहीं, कंपनी ने नेशनल और इंटरनेशनल क्लाइंट्स के लिए कई इनोवेटिव और डिसएबल्ड फ्रेंडली टेक्नोलॉजी डेवलप की है। इसमें अलग-अलग किताबों के 1.5 मिलियन पेजेज को डिसएबल फ्रेंडली फॉर्म में कनवर्ट करना शामिल है।

क्लाइंट से इंस्पिरेशन

बरियर्स ब्रेक टेक्नोलॉजी की फाउंडेर डायरेक्टर और माइक्रोसॉफ्ट सर्टिफाइड सिस्टम्स इंजीनियर शिल्पी कपूर ने बताया कि वे इंडिया बेस्ड एक यूएस कंपनी में काम कर रही थीं, तभी एक दिन अपने बॉस से फोन पर बात करने के दौरान उन्हें पता चला कि वे पैरालाइज्ड हैं। इसी के बाद इन्होंने ऐसे लोगों के लिए स्पेशल टेक्नो डिवाइस और वेबसाइट्स डेवलप करने की नीयत से अपना वेंचर स्टार्ट करने का फैसला किया। इसके लिए उन्होंने बकायदा वेब कंटेंट एक्सेसेबिलिटी गाइडलाइंस में ट्रेनिंग ली। इस तरह आज कई डिसएबल लोगों को जॉब के साथ-साथ आगे बढने का मौका मिला है। वैसे, वे 1995 से ही बिल गेट्स फाउंडेशन की मदद से विजुअली चैलेंज्ड बच्चों के लिए मुंबई में एक कंप्यूटर ट्रेनिंग सेंटर चला रही हैं।

डिसएबल फ्रेंडली वेबसाइट


अब तक कंपनी ने 20 से भी ज्यादा डिसएबल फ्रेंडली वेबसाइट्स डेवलप की हैं जिनमें गवर्नमेंट की वेबसाइट्स और नेशनल ओपन स्कूल की साइट भी शामिल है।

विकलांग हुए तो क्या हुआ, हौसला तो है

ब्रेल ऑफ द बॉडी

कहते हैं जिसकी आंखें नहीं होतीं, उसका कोई न कोई अंग बेहद सेंसिटिवली डेवलप हो जाता है। कुछ ऐसा ही हुआ पंजाब के गौरव दुआ के साथ। दुआ जन्म से ही विजुअली हैंडीकैप्ड हैं, लेकिन वह लोगों की इस तरह मसाज करते हैं कि अच्छे से अच्छा मसाजर न कर सके। उनके क्लाइंट उन्हें वीकेंड पर घर पर भी मसाज के लिए बुलाते हैं।?धीरे-धीरे उन्होंने अपना यह हुनर फैलाना शुरू कर दिया। शुरू-शुरू में इस काम में काफी परेशानियां आई।

ब्लाइंड मसाजर

मसाज इंस्ट्रक्टर विजुअली हैंडीकैप्ड के हाथ लेता है, उसे ऑब्जेक्ट बॉडी पर मसाज करवाता है।?इस दौरान जहां-जहां प्रेशर प्वाइंट्स होते हैं, वहां प्रेशर देने पर फीडबैक दिया जाता है। चार-पांच घंटे तक कम से कम प्रैक्टिस होती है। फिर धीरे-धीरे विशेषज्ञता आ जाती है। दिल्ली में ब्लाइंड रिलीफ एसोसिएशन ने ब्लाइंड मसाज स्कूल में चार महीने का वोकेशनल कोर्स शुरू किया है।

जॉब्स फॉर विजुअली हैंडीकैप्ड

विकलांगों की मदद के लिए कई हाथ आगे आए हैं। उनकी रोजी-रोटी का जुगाड करने को कई सारी जॉब प्रोवाइडिंग एजेंसीज सामने आई?हैं। एलसीडी यानी ल्योनॉर्ड चेशायर डिसेबिलिटी इन्हींमें से एक है। यह संस्था 52 देशों में चल रही है और एक वेब पोर्टल चलाती है जो शारीरिक रूप से विकलांग लोगों के रिक्रूटमेंट की सुविधा देती है। इसके जरिए यह संस्था विकलांगों के रिज्यूमे बनाती है, उसे एम्प्लॉयर कंपनियों तक पहुंचाती है। एम्प्लॉयर कंपनियों में आईटी, बीपीओ, हॉस्पिटैलिटी जैसे कई सेक्टर्स की कंपनियां शामिल हैं। इन कंपनियों को जब भी ह्यूमन रिसोर्स की जरूरत होती है, वे ल्योनॉर्ड चेशायर डिसेबिलिटी, एफिकोर और जॉब एबिलिटी डॉट ऑर्ग जैसे जॉब पोर्टल पर अपनी रिक्वॉयरमेंट भेज देती हैं। ये जॉब पोर्टल्स फिर अपनी संस्था में रजिस्टर्ड जॉब सीकर्स को उनके यहां इंटरव्यू के लिए भेज देते हैं।

दिखाई रोशनी की राह

दिल्ली की रहने वाली शुभ्रा डंडोना की सुनने की क्षमता जन्म के कुछ ही दिनों बाद खराब हो गई थी। तब से उन्हें पढने-लिखने और कुछ भी नया सीखने में काफी दिक्कतें आती थीं।?शुभ्रा ने फिर ओपन स्कूल से पढाई पूरी की। इसके बाद शुभ्रा ने एनआईआईटी से कंप्यूटर कोर्स भी किया, लेकिन हियरिंग डिसएबिलिटी की वजह से जॉब नहींमिल सकी, ऐसे में शुभ्रा ने एफिकोर एलआरसी के ट्रेनिंग कोर्स में रजिस्ट्रेशन करवाया और जॉब हासिल कर ली।

ट्रेनिंग प्लेटफॉर्म फॉर हैंडीकैप्ड

ये वेबपोर्टल केवल उच्च शिक्षित और हाइली स्किल्ड लोगों के लिए ही नहीं, बल्कि ये एक फोरम की तरह भी काम करता है जहां शारीरिक विकलांग अपनी कैपेसिटी दिखा सकते है, अपने इश्यूज डिस्कस कर सकते हैं, एडवाइस ले सकते हैं। ये वेबपोर्टल यूके की संस्था ल्यूनॉर्ड चेशायर डिसैबिलिटी ने शुरू की है। भारत में इसे सीडीटी यानी चेशायर डिसएबिलिटी ट्रस्ट ने रजिस्टर करवाया है। ये ट्रस्ट जॉब एबिलिटी डॉट ऑर्ग को पूरे भारत में प्रमोट कर रहा है।

आंखें नहीं फिर भी पढें ऑनलाइन

वेबपोर्टल से विकलांगों को जॉब्स


ईएफआईसीओर डॉट ऑर्ग नाम के जॉब पोर्टल के जरिए विकलांगों को करियर गाइडेंस, सॉफ्ट स्किल्स ट्रेनिंग, सेक्टर स्पेसिफिक ट्रेनिंग, प्लेसमेंट सपोर्ट, सोशल सिक्योरिटी प्रोटेक्शन, एंटरप्रेन्योरशिप काउंसलिंग और स्व-रोजगार के अवसर दिए जाते हैं। एम्प्लॉयर्स के जरिए इन लोगों को वैकेन्सी के हिसाब से फ्री ट्रेनिंग और प्लेसमेंट दिलवाया जाता है। ज्यादातर छात्रों को आईटी, बीपीओ, हॉस्पिटैलिटी और रिटेल सेक्टर्स में जॉब मिल जाती है। इनकी पूरी कोशिश होती है कि ये स्टूडेंट विकलांग होते हुए भी अपने पैरों पर खडे हो सकें।

विकलांग युवाओं के लिए अवसर


एफिकोर लिवलीहुड रिसोर्स सेंटर ल्यूनॉर्ड चेशायर बेंगलुरु और एस्सेंटर,युनाइटेड किंगडम इसके पार्टनर हैं जो युवाओं को ज्यादा से ज्यादा रोजगार के अवसर मुहैया कराने में मदद करते हैं। इन संस्थाओं ने दिल्ली सरकार के सहयोग से दो जॉब फेयर का भी आयोजन किया। जहां रजिस्टर्ड 650 विकलांग बेरोजगारों में से 150 लोगों को आईटी, बीपीओ और हॉस्पिटैलिटी वाले अन्य जॉब्स मिल गए।

ब्रेल मोबाइल लाइब्रेरी

नेत्रहीनों के लिए ब्रेल लिपि की किताबों की भी लाइब्रेरी बनाई गई है। दिल्ली की इस मोबाइल ब्रेल लाइब्रेरी में करीब 1500 किताबें हैं।?2012 में ही यह सेवा शुरू की गई थी। पीले रंग की एक वैन में ब्रेल लिपि में सारी किताबें रखी हैं, जो पूरी दिल्ली में घूमती है। पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी के हेडक्वार्टर से शुरू होकर यह रोहिणी सेक्टर 5 में ऑल इंडिया कंफेडरेशन ऑफ द ब्लाइंड के ऑफिस तक जाती है। जब मोबाइल ब्रेल लाइब्रेरी की गाडी गेट के पास लग जाती है तो स्टूडेंट्स को बता दिया जाता है कि मोबाइल लाइब्रेरी लगा दी गई है।

ब्रेल लाइब्रेरी में किताबों का भंडार

मोबाइल ब्रेल लाइब्रेरी में किताबों का भंडार है। हालांकि ज्यादातर किताबें फिक्शन की ही हैं, फिर भी ब्रेल लिपि में लिखी ये किताबें पढने के शौकीन नेत्रहीनों के लिए बेहद सुकून भरा है। यह लाइब्रेरी 1980 में दिल्ली के लोधी रोड पर शुरू हुई थी। दूर-दूर से स्टूडेंट्स यहां पढने आते थे। साल 2000 में डीजल गाडी रिप्लेस होने की वजह से इसे बंद करना पडा। 2005 में यह फिर शुरू हुई और अब आलम ये है कि हर रोज यहां करीब 5-6 मेंबर बन ही जाते हैं।

ऑनलाइन ब्रेल से स्टडी

ऐसे स्टूडेंट्स जो पढाई कर रहे थे, लेकिन अचानक किसी हादसे में आंखों की रोशनी चली जाने से पढाई पूरी नहीं कर सके, उन्हें ऑनलाइन ब्रेल लाइब्रेरी के रूप में तोहफा मिला। अभी तक वे सोच रहे थे कि अपनी आगे की पढाई कैसे पूरी करेंगे लेकिन ऑनलाइन ब्रेल लाइब्रेरी ने उनकी मुश्किलें कम कर दीं। ब्रेल लिपि के संस्थापक लुइस ब्रेल के जन्मदिन 04 जनवरी के मौके पर नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर द विजुअली हैंडीकैप्ड ने ऑनलाइन ब्रेल लाइब्रेरी शुरू की। 14 भाषाओं में 12,000 से भी ज्यादा टाइटल्स इस ऑनलाइन ब्रेल लाइब्रेरी पर उपलब्ध हैं। वेबसाइट का एड्रेस है :

www.oblindia.org

बिना आंखों के भी ऑनलाइन


एनआईवीएच यानी नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर द विजुअली हैंडीकैप्ड ने पोर्टल यूज करने के लिए करीब 100 यूनिवर्सिटीज और लाइब्रेरीज से चुन कर ब्लाइंड स्टूडेंट्स और स्टाफ को ट्रेन किया जिससे उनका इस्तेमाल एक बडे पोर्टल को बनाने में किया जा सके। अगर किसी को ये लाइब्रेरी यूज करनी है, तो वेबसाइट पर इनरोल करा सकता है। इतना ही नहीं, इस लाइब्रेरी में कॉमन केैटलॉग भी है जिसका एक्सेस हर तरह की किताबों के लिए है।

बिना ब्रेल के भी पढें

जो किताबें या मैगजीन ब्रेल लिपि में नहीं हैं क्या उन्हें ब्लाइंड स्टूडेंट्स नहीं पढ सकते ? बिल्कुल पढ सकते हैं। सेंट्रल साइंटिफिक इंस्ट्रूमेंट ऑर्गेनाइजेशन,चंडीगढ ने एक ऐसी मशीन डिजाइन की है जिसके जरिए विजुअली हैंडीकैप्ड को ब्रेल लिपि की भी जरूरत नहीं है। इस डिवाइस में पहले एक हाई रिजॉल्यूशन कैमरा डॉक्यूमेंट की फोटो खींचता है। डॉक्यूमेंट को स्कैन करता है। इस तरह चार बार में एक ए-फोर साइज पेपर को रीड करता है। 15 से 30 सेकंड में ए-फोर साइज प्रिंटेड डॉक्यूमेंट स्पीच में कन्वर्ट हो जाता है और इस तरह प्रिंट डॉक्यूमेंट को वॉयस में कन्वर्ट करके कोई भी विजुअली हैंडीकैप्ड इसे सुन सकता है।

प्लेसमेंट सपोर्ट

हम विकलांगों को करियर गाइडेंस, सॉफ्ट स्किल्स ट्रेनिंग, सेक्टर स्पेसिफिक ट्रेनिंग, प्लेसमेंट सपोर्ट, सोशल सिक्योरिटी प्रोटेक्शन, एंटरप्रेन्योरशिप काउंसलिंग और स्व-रोजगार का अवसर देते हैं। इन लोगों को वैकेन्सी के हिसाब से फ्री ट्रेनिंग और प्लेसमेंट दिलाई जाती है। 

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