पं. अमृतलाल नागर का जीवन परिचय | Pandit Amrit Lal Nagar Ka Jeevan Parichay
बाल्यावस्था
- हिन्दी उपन्यास के तृतीय उत्थान-काल में जिन उपन्यासकारों का विशिष्ट महत्व रहा, उनमें पं.अमृतलाल नागर महत्वपूर्ण हैं |
- पं. अमृतलाल नागर का जन्म 17 अगस्त, 1916 को मध्यम वर्ग के एक सम्मानित गुजराती ब्राह्मण परिवार में आगरा के गोकुलपुरा मोहल्ला में हुआ
- पं. अमृतलाल नागर के पितामह का नाम पं. शिवराम नागर था जो सन् 1895 में लखनऊ जाकर बस गए थे. पिताश्री का नाम पं. राजाराम नागर था |
- सन् 1935 में जब पं. अमृतलाल नागर की अवस्था केवल 19 वर्ष थी, इनके पिताश्री का आकस्मिक निधन हो गया और गृहस्थी का भार आपके किशोर कंधों पर आ गया.
- पं. अमृतलाल नागर की शिक्षा बहुत सामान्य स्तर तक ही हो पाई ।
जीविकोपार्जन
- पं. अमृतलाल नागर को पिताजी के स्वर्गवासी होने के उपरांत नागरजी को घर को चलाने के लिए काम करना पडा.
- पं. अमृतलाल नागर ने एक बीमा कम्पनी में डिस्पैचर के पद पर 30 रुपए मासिक पर नौकरी कर ली कुछ लोगों का कहना है कि “इस नौकरी के पीछे आर्थिक संकट का कम कारण था, बल्कि मुख्य कारण-मिलने-जुलने वालों के इस प्रश्न से छुटकारा पाना था कि भई, अब क्या करने का विचार हैं, इससे अच्छा है कि कहीं नौकरी कर लो.”
नागरजी ने पूर्ण मनोयोग के साथ नौकरी की, परन्तु किसी बात पर अफसर से झड़प हो गई और उन्होंने नौकरी छोड़ दी. यहाँ का कार्यकाल केवल 17 दिन रहा था । - इसके बाद सन् 1940 में पं. अमृतलाल नागर सिनेमा जगत में नौकरी करने के लिए बम्बई गए, वहाँ 7 वर्ष रहकर लखनऊ वापस आ गए |
- बम्बई के 7 वर्ष के स्वल्पकाल में नागरजी ने धन और यश दोनों कमाए|
- इस बीच में हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में एक श्रेष्ठ कलाकार के रूप में आपकी पहचान बन गई |
आप लखनऊ में रहकर साहित्य-साधना करने लगे. - भारत सरकार ने आपको आकाशवाणी दिल्ली में नाटक विभाग में प्रोड्यूसर के पद पर नियुक्त कर दिया. वहाँ आप सन् 1953 से सन् 1955 तक दो वर्ष रहे.
व्यक्तित्व
- गोरा-चिट्टा रंग, स्वस्थ सुगठित शरीर, मुख में पान, आँखों में भांग के डोरे, कानों तक लटकते बाल- यह था श्री अमृतलाल नागर का व्यक्तित्व, अत्यन्त हँसमुख एवं मधुरभाषी थे. संक्षेप में नागरजी प्रियदर्शी एवं पीयूषवर्षी थे.
- नागरजी के रहन-सहन और आचार-व्यवहार में लखनवी नजाकत और नफासत घुल-मिल गई थी. नागरजी के व्यक्तित्व का यह स्वरूप उनके उपन्यासों में भी झाँकता हुआ दिखाई देता है.
- एक लेखक के शब्दों में, “यदि यह कहा जाए कि नागरजी लखनवी सभ्यता और संस्कृति के प्रतिनिधि थे, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी.” नागरजी का व्यवहार आत्मीयतापूर्ण था और प्रथम भेंट में ही वह व्यक्ति के साथ सहज भाव से घुल-मिल जाते थे. उनके द्वारा सम्पादित हास्य-व्यंग्य की पत्रिका ‘चकल्लस को देखकर आचार्य पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी ने यह टिप्पणी की थी-‘चकल्लस का आठवाँ अंक देखकर मेरा मुर्दा दिल भी जिंदा सा हो उठा. इस अंक में हास्य रस प्रधान कितने ही लेख बड़े मौके के हैं. कविताएँ भी उसी रस से सराबोर हैं.
- राजनीति और साहित्य भी उसी रस के रसिया बना डाले गए. ऐसे चित्र भी अनेक हैं जो विनोद-वाटिका के भी खूब दर्शन कराते हैं.” इनके सुदृढ़ एवं संश्लिष्ट व्यक्तित्व को लक्ष्य करके श्रीमती महादेवी वर्मा ने एक कविता लिखी थी, जिसकी अंतिम पंक्ति इस प्रकार है-“जैसा काम तुम्हारा वैसे ही तुम अमृतलाल हो,’
व्यक्तित्व निर्माण
- प्रतिभा के जन्मजात धनी नागरजी को अपने पिताजी के मित्र पं. माधव शुक्ल, बाबू श्यामसुन्दरदास, पं. ब्रजनारायण चकबस्त प्रभृति कला के धनी महानुभावों का सानिध्य प्राप्त हुआ और इस सत्संग ने आपकी प्रतिभा को उभारा भी और दिशा भी प्रदान की.
साहित्य साधना
- सन् 1928 में साइमन कमीशन का बहिष्कार भारत के स्वतन्त्रता आंदोलन की एक बहुत बड़ी घटना है. उस समय नागर जी की अवस्था लगभग 13 वर्ष थी. उस घटना का प्रभाव इन पर बहुत गम्भीर पड़ा. उनकी लेखनी बोल पड़ी
“कब लौं कहाँ लाठी खाया करें, कब लौ कहाँ जेल भरा करिए”
- बस, इसी राष्ट्रीय भावना एवं विद्रोही स्वर की नींव पर इनकी साहित्य सर्जना का भवन निर्मित होने लगा. इन्हीं दिनों नागरजी ने प्रसाद के ‘आँसू, हितैषी की तीन कविताओं, सोहन लाल द्विवेदी की ‘किसान’ कविता की तथा कुछ अन्य कविताओं की पैरोडियाँ लिखीं.
- 15 वर्ष की अवस्था में आपकी पहली कहानी ‘प्रायश्चित’ स्थानीय पत्रिका ‘आनन्द’ में प्रकाशित हुई. सन् 1935 में आपका प्रथम कहानी-संग्रह ‘वाटिका’ प्रकाशित हुआ, कथाकार नागरजी का यह पहला कदम था.
- अमृतलाल नागर एक प्रतिभाशाली कथा साहित्यकार थे. नागरजी ने वैसे तो सैकड़ों कहानियों, बाल-साहित्य, हास्य-व्यंग्य, नाटकों तथा उपन्यासों का प्रणयन किया, परन्तु वह मुख्यतः उपन्यासकार ही थे.
- उन्होंने सामाजिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक सभी प्रकार के उपन्यास लिखे हैं. प्रायः समस्त उपन्यासों में सामाजिक चेतना के दर्शन होते हैं. नागरजी ने प्रेमचन्द के समान अपने उपन्यासों में मानवतावादी मूल्यों की स्थापना बहुत ही सुन्दर ढंग से की है,
निष्ठावान साहित्यकार
- नागरजी ने साहित्य को जीवन का बहुत ही महत्वपूर्ण अंग माना है, उनका कहना है कि जीवन चलाने के लिए साहित्य से अलग रहकर दूसरे काम भी व्यक्ति को करने पड़ते हैं. उन्होंने वस्तुतः परिवार एवं समाज दोनों के प्रति व्यक्ति का उत्तरदायित्व माना है. उनके उपन्यासों में स्वस्थ सामाजिक जीवन दर्शन की अभिव्यक्ति के मूल में यही कारण है.
- नागरजी राजनीति और राजनीति की दलदल से सदैव बहुत दूर रहे-साहित्य एवं राजनीति दोनों ही प्रकार की राजनीतिक दलदल से. किसी भी राजनीतिक विचारधारा के प्रति कभी भी उनका लगाव नहीं रहा. उनका बाह्य एवं अन्तर सब कुछ विशुद्ध भारतीय है.
- डॉ. रामबिलास शर्मा ने उनके विषय में लिखा है कि “नागरजी जो बात कहते हैं, बेलाग कहते हैं, वह बेलाग होती है और उसे वह मुँह पर कहते हैं. मुझसे ही नहीं, वर्षों से बहुतों से उनकी दोस्ती है, शायद उसका रहस्य यहीं है, वह अपनी पीढ़ी के तमाम लेखकों को जोड़ने वाले और नई-पुरानी पीढ़ी के बीच की कड़ी हैं वह निष्ठावान साहित्यकार हैं. साहित्यिक मूल्यों के प्रति उनकी अटूट आस्था है. यशपाल जी ने इनकी एक कमजोरी के प्रति हमारा ध्यान खींचा है और वह कमजोरी है-उनका अन्याय के प्रति आवेश में आपे से बाहर हो जाना.”
- उपन्यासकार अमृतलाल नागर-नागरजी की उपन्यास-सम्पदा विपुल है. उनके विशेष प्रसिद्ध उपन्यास हैं-सेठ बाँकेमल, महाकाल, बूंद और समुद्र तथा अमृत और विष.
- इनके अतिरिक्त ‘नवाबी मसनद’, ‘गदर के फूल’, ‘शतरंज के मोहरे’, ‘ये कोठे वालियाँ’ तथा ‘सुहाग के नूपुर’ हल्के किन्तु बहुचर्चित उपन्यास हैं. नागरजी के अधिकांश उपन्यास सामाजिक हैं।
- उनमें समाज का यथार्थपूर्ण सजीव चित्रण पाया जाता है. सेठ बाँकेमल इसी प्रकार का एक हास्य व्यंग्यपूर्ण उपन्यास है जिसका प्रकाशन सन् 1955 में हुआ. इसमें दो पात्र हैं-सेठ बाँकेमल और पारसनाथ चौबे. इन दो पात्रों के माध्यम से उपन्यासकार ने नवीन और प्राचीन युगों का सजीव चित्रण प्रस्तुत किया है.
- द्वितीय विश्वयुद्ध के दिनों के भारतीय जीवन की न मालूम कितनी बातों की आलोचना नागरजी के सेठ बाँकेमल हँसी-हँसी में कर जाते हैं. इसमें आगरा की आंचलिक भाषा अपने ठेठ रूप में देखने को मिलती है,
- ‘महाकाल’ का प्रकाशन सन् 1947 में हुआ. यह उपन्यास बंगाल के सन् 1943 वाले दुर्भिक्ष की पृष्ठभूमि पर आधारित है. इस उपन्यास में मानवीय दुर्बलताओं का सुन्दर चित्रण किया गया है. यथार्थ चित्रण के साथ प्रेम, अहिंसा, सहानुभूति आदि मानवीय भावनाओं का महत्व प्रदर्शित किया है. ‘बूंद और समुद्र’ (1956) इनका श्रेष्ठतम उपन्यास है. इसमें व्यष्टि और समष्टि का सामंजस्य प्रस्तुत किया गया है, ‘सुहाग के नूपुर’ (1960) में यह दिखाया गया है कि केवल नारी का सती रूप ही पुरुष को बल दे सकता है.
- ये कोठे वालियाँ’ में वेश्या- समस्या के विरुद्ध जेहाद का स्वर मुखर है, ‘अमृत और विष’ नागरजी का श्रेष्ठ उपन्यास है. इसमें विष रूप में समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार और अनैतिकताओं का चित्रण है तथा अमृत को नैतिक मूल्यों के रूप में रूपायित किया गया है.
- अमृत अच्छाई का और विष बुराई का प्रतीक है, ‘मानस का हंस’ में गोस्वामी तुलसीदास की जीवन-कथा यथाशक्ति प्रामाणिक रूप में प्रस्तुत की गई है. ‘खंजन नयन’ में सूरदास की गाथा को गरिमामय ढंग से प्रस्तुत किया गया है.
- अब मैं नाच्यौ बहुत गोपाल में सामाजिक विकृतियों का चित्रण करते हुए उनका पर्यवसान आदर्शवाद में किया गया है. अज्ञेय जी से भेंटवार्ता में नागरजी ने स्वीकार किया है कि मोपासा की कहानियाँ उनकी प्रेरणा का स्रोत रही हैं. उन्होंने मोपासा की 5-6 कहानियों के हिन्दी में अनुवाद भी किए.
कहानियाँ
- नागरजी ने सैकड़ों कहानियों की रचना की. इनमें कतिपय कहानियाँ विशेष रूप से चर्चित हैं-अवशेष, आदमी नहीं, ‘नहीं’, एक दिल हजार अफसाने, एक दिल हजार दास्तां, एटम बम, पाँचवाँ दस्ता और सात कहानियाँ, उतार-चढ़ाव, चन्दन-वन, चक्करदार सीढ़ियाँ और अंधेरा, चढ़त न दूजो रंग, नुक्कड़घर, बात की बात, युगावतार-ये सभी नागरजी के नाटक हैं तथा हास्य व्यंग्यों में कृपया दाएं चलिए, चकल्लस, नवाबी मसनद, भारत पुत्र नौरंगीलाल, सेठ बाँकेमल, मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ, हम-फिदाए लखनऊ तथा अनुदित साहित्य प्रेम की प्यास, बिसाती तथा क्रांति; सर्वेक्षणों में-गदर के फूल, चैतन्य महाप्रभु (जीवनी), जिनके साथ जिया (संस्मरण). टुकड़े-टुकड़े दास्तान, (आत्म-परक लेख-संकलन) साहित्य तथा संस्कृति एवं मेरा प्रवास प्रमुख हैं. ।
मान-सम्मान
- दीर्घकालीन हिन्दी-सेवा के उपलक्ष्य में नागर जी को अनेक सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त हुए. सन् 1947 में ‘अमृत और विष’ उपन्यास पर साहित्य अकादमी पुरस्कार और सन् 1970 में सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार प्रदान किए गए. सन् 1981 में भारत सरकार ने नागरजी को ‘पद्मभूषण’ द्वारा अलंकृत किया.
- सन् 1986 में बिहार राज्य सरकार ने इन्हें एक लाख रुपए के डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शिखर सम्मान द्वारा सम्मानित किया तथा सन् 1989 में उत्तर प्रदेश सरकार ने आपको सम्मानित करके लोगों का ध्यान आकर्षित किया.
अवसान
- लगभग 60 वर्षों की दीर्घकालीन साहित्य साधना में रत रहते हुए 23.2.90 को लखनऊ के किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज में 74 वर्ष की आयु में परलोकवासी हो गए
उपसंहार
- नागरजी ने एक लम्बी अवधि तक साहित्य साधना की और नूतन सामाजिक दृष्टिकोण के निर्माण में रत रहे, नागजी के उपन्यासों की पृष्ठभूमि अधिकांशतः ऐतिहासिक है, जबकि पात्र उनकी लेखनी की उपज हैं.
- उपन्यासों में हम नागरजी की चिन्तन-पद्धति का स्वस्थ विकास देख सकते हैं इनके उपन्यासों में वस्तु और शिल्प दोनों ही दृष्टियों से उनकी बहुमुखी प्रतिभा के दर्शन होते हैं, नागरजी के उपन्यास इस महत्वपूर्ण तथ्य के प्रमाण कि उपन्यासकार जो भी लिखता है, अपने आसपास के वातावरण से प्रभावित होकर लिखता है.
- नागरजी आधुनिककालीन हिन्दी उपन्यासकारों में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं.
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