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नैन सिंह रावत कौन थे? | Who was Nain Singh Rawat in Hindi

 

नैन सिंह रावत कौन थे? (Who was Nain Singh Rawat in Hindi)

उत्तराखण्ड के एक सीमांत गांव के शिक्षक थे जिन्होंने न सिर्फ़ 19वीं सदी में पैदल तिब्बत को नापा बल्कि वहां का नक्शा तैयार किया| ये वो दौर था जब तिब्बत दुनिया की नजरों से छिपा हुआ था और उसे फॉरबिडन लैंड कहा जाता था| वहाँ विदेशियों को पूरी तरह से आने की मनाही थी| पंडित नैन सिंह न केवल तिबब्त गए बल्कि वहां जाकर बिना किसी आधुनिक उपकरण के तिबब्त का नक्शा बना लाए |


पंडित नैन सिंह रावत का जीवन परिचय (Biography of Pandit Nain Singh Rawat)


  • पंडित नैन सिंह रावत का जन्म उत्तराखण्ड के पिथौरागढ़ जिले के मुनस्यारी तहसील स्थित मिलम गांव में 21 अक्तूबर 1830 को हुआ था।
  • उनके पिता अमर सिंह को लोग ‘लाटा बुढा’ के नाम से जानते थे। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही हासिल की लेकिन आर्थिक तंगी के कारण जल्द ही पिता के साथ भारत और तिब्बत के बीच चलने वाले पारंपरिक व्यापार से जुड़ गये।
  • इससे उन्हें अपने पिता के साथ तिब्बत के कई स्थानों पर जाने और उन्हें समझने का मौका मिला। उन्होंने तिब्बती भाषा सीखी जिससे आगे उन्हें काफी मदद मिली।
  • हिन्दी और तिब्बती के अलावा उन्हें फारसी और अंग्रेजी का भी अच्छा ज्ञान था। इस महान अन्वेषक, सर्वेक्षक और मानचित्रकार ने अपनी यात्राओं की डायरियां भी तैयार की थी। उन्होंने अपनी जिंदगी का अधिकतर समय खोज और मानचित्र तैयार करने में बिताया।
  • इस महान अन्वेषक का 1 फरवरी 1895 में दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया।

पंडित नैन सिंह रावत का योगदान (Contribution of Pandit Nain Singh Rawat)


  • 19वीं शताब्दी में अंग्रेज़ भारत का नक्शा तैयार कर रहे थे और लगभग पूरे भारत का नक्शा बना चुके थे। अब वह आगे बढ़ने की तैयारी कर रहे थे, लेकिन उनके आगे बढ़ने में सबसे बड़ा रोड़ा था तिब्बत।
  • यह क्षेत्र दुनिया से छुपा हुआ था। न सिर्फ़ वहां की जानकारियां बेहद कम थीं बल्कि विदेशियों का वहां जाना भी सख़्त मना था। ऐसे में अंग्रेजों के सामने यह समस्या खडी हो गयी कि तिब्ब्बत का नक्शा कैसे तैयार किया जाए कई कोशिशों के बाद भी वह असफल रहे।
  • कई बार विफल होने के बाद उस समय के सर्वेक्षक जनरल माउंटगुमरी ने ये फैसला लिया कि अंग्रेज़ों के बजाए उन भारतीयों को वहां भेजा जाए जो तिब्बत के साथ व्यापार करने वहां अक्सर आते जाते हैं। और फिर खोज शुरू हुई ऐसे लोगों की जो वहां की भौगोलिक जानकारी एकत्र कर पायें, और आखिरकार 1863 में कैप्टन माउंटगुमरी को दो ऐसे लोग मिल ही गए। 33 साल के पंडित नैन सिंह रावत और उनके चचेरे भाई माणी सिंह।
  • नैन सिंह और उनके भाई मणि सिंह को तत्कालीन शिक्षा अधिकारी एडमंड स्मिथ की सिफारिश पर कैप्टेन थामस जार्ज मोंटगोमेरी ने जीएसटी के तहत मध्य एशिया की खोज के लिये चयनित किया था |
  • पंडित नैन सिंह और उनके भाई 1863 में जीएसटी (ग्रेट ट्रिगोनोमैट्रिकल सर्वे) से जुड़े और उन्होंने विशेष तौर पर नैन सिंह 1875 तक तिब्बत की खोज में लगे रहे।
  • उनका वेतन 20 रूपये प्रति माह था। इन दोनों भाईयों को ग्रेट ट्रिगोनोमैट्रिकल सर्वे के देहरादून स्थित कार्यालय में दो साल तक प्रशिक्षण भी दिया गया था।
  • अब सबसे बडी चुनौती ये थी कि आखिर दिशा और दूरी नापने के यंत्र तिब्बत तक कैसे ले जाए जाएं क्योंकि ये आकार में बहुत बड़े थे और पकड़े जाने पर तिब्बती इसे जासूसी मान कर मौत की सजा भी दे सकते थे|
  • आखिरकार दोनों भाइयों को ट्रेनिंग के लिए देहारदून लाया गया और ये तय किया गया कि दिशा नापने के लिए छोटा कंपास लेकर जाएंगे और तापमान नापने के लिए थर्मामीटर|
  • हाथ में एक प्रार्थना चक्र था जिसे तिब्बती भिक्षुक साथ रखते थे और दूरी नापने के लिए एक नायाब तरीका अपनाया गया|
  • नैन सिंह के पैरों में 33.5 इंच की रस्सी बांधी गई ताकि उनके कदम एक निश्चित दूरी तक ही पड़ें. इसके साथ उन्हें देहरादून में महीनों अभ्यास करवाया गया|
  • हिंदुओं की 108 की कंठी के बजाय उन्होंने अपेन हाथों में जो माला पकड़ी वह 100 मनकों की थी ताकि गिनती आसान हो सके|
  • भले ही उनके पास उपकरण बेहद साधारण रहे हों लेकिन हौसला असाधारण था. 1863 में दोनों भाइयों ने अलग-अलग राह पकड़ी|
  • नैन सिंह रावत काठमांडू के रास्ते वह तिब्बत के लिए निकले और माणी सिंह कश्मीर के रास्ते तिब्बत के लिए निकले |
  • माणी सिंह इस पहले ही प्रयास में नाकाम हो गए और कश्मीर से वापस लौट आए लेकिन नैन सिंह ने अपनी यात्रा जारी रखी| वह तिब्बत पहुंचे और अपनी पहचान छुपा कर बौद्ध भिक्षु के रूप में रहे|
  • पंडित नैन सिंह ने काठमांडो से लेकर ल्हासा और मानसरोवर झील का नक्शा तैयार किया। इसके बाद वह सतलुज और सिंध नदी के उद्गम स्थलों तक गये।
  • उन्होंने 1870 में डगलस फोर्सिथ के पहले यरकंड यानि काशगर मिशन और बाद में 1873 में इसी तरह के दूसरे मिशन में हिस्सा लिया था।
  • उनका यह सबसे कठिन दौरा 15 जुलाई 1874 को लेह से शुरू हुआ था जो उनकी आखिरी खोज यात्रा भी साबित हुई। इसमें वह लद्दाख के लेह से होते हुए ल्हासा और फिर असम के तवांग पहुंचे थे।
  • इस यात्रा के दौरान उन्होंने कई महत्वपूर्ण जानकारियां जुटायी जो बाद में बहुत उपयोगी साबित हुई।
  • द ज्योग्राफिकल मैगजीन में 1876 में पहली बार उनका कार्यों पर लेख प्रकाशित हुआ था।

पंडित नैन सिंह रावत को मिले पुरस्कार (Awards Received by Pt. Nain Singh Rawat  )


  • पंडित नैन सिंह को उनके इस अद्भुत कार्यों के लिये देश और विदेश में कई पुरस्कार पदक भी मिले।
  • पेरिस के भूगोलवेत्ताओं की सोसायटी ने उन्हें स्वर्णजड़ित घड़ी प्रदान की। उन्हें रूहेलखंड में एक गांव जागीर के रूप में और साथ में 1000 रूपये दिये गये थे।
  • रायल ज्योग्राफिकल सोसायटी ने उन्हें स्वर्ण पदक देकर सम्मानित किया था|
  • उनकी यात्राओं पर कई किताबें प्रकाशित हुई हैं। इनमें डेरेक वालेर की ‘द पंडित्स’ तथा शेखर पाठक और उमा भट्ट की ‘एशिया की पीठ पर’ महत्वपूर्ण हैं।
  • नैन सिँह को एक एक्सप्लोरर के रूप मेँ ही याद नहीँ किया जाता बल्कि हिंदी मेँ आधुनिक विज्ञान में उन्होनेँ अक्षांश दर्पण नाम की एक किताब लिखने वाले वह पहले भारतीय थे | यह पुस्तकेँ जो सर्वेयरोँ की आने वाली पीढियोँ के लिये भी एक ग्रंथ के समान हैं|
  • ब्रिटिश राज में उनके कामोँ को काफी सराहा गया| ब्रितानी सरकार ने 1977 में बरेली के पास 3 गावोँ की जागीरदारी उन्हे पुरस्कार स्वरूप प्रदान की|
  • इसके अलावा उनके कामोँ को देखते हुए कम्पेनियन ऑफ द इंडियन एम्पायर का खिताब दिया गया|
  • अनेक संस्थाओँ ने उनके काम को सराहा, एशिया का मानचित्र तैयार करने में उनका योगदान सर्वोपरि है|
  • रॉयल जियोग्राफिकल सोसाइटी ने उन्हें स्वर्ण पदक देकर सम्मानित किया था।

पंडित नैन सिंह रावत के बारे में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य (Some important facts about Pandit Nain Singh Rawat)


  • नैन सिंह रावत ने ही सबसे पहले दुनिया को ये बताया कि लहासा की समुद्र तल से ऊंचाई कितनी है, उसके अक्षांश और देशांतर क्या है?
  • यही नहीं उन्होंने ब्रहमपुत्र नदी के साथ लगभग 800 किलोमीटर पैदल यात्रा की और दुनिया को बताया कि स्वांग पो और ब्रह्मपुत्र एक ही नदी हैं|
  • सतुलज और सिंधु नदी के स्रोत भी सबसे पहले उन्होँने ही दुनिया को बताये|
  • सबसे पहली बार उन्होँने ही दुनिया को तिब्बत के कई अनदेखे और अनसुलझे रहस्योँ का ज्ञान करवाया |
  • नैन सिंह पर सागा ऑफ नेटिव एक्सपलोरर नाम किताब लिख चुके पांगती बताते हैं कि यह कितना मुश्किल था| अन्वेषक होने की कारण नैन सिँह रावत ने चार बड़ी यात्रायेँ की|
  • सबसे पहले वह साल 1865 में वो काठमांडू के रास्ते लहासा गए और कैलाश मानसरोवर के रास्ते वापस 1866 में वापस भारत आए|
  • साल 1867-68 में वह उत्तराखण्ड में चमोली जिले के माणा पास से होते हुए तिब्बत के थोक जालूंग गए, जहां सोने की खदानें थीं|
  • उनकी तीसरी बड़ी यात्रा थी शिमला से लेह और यारकंद जो उन्होंने साल 1873 -74 में की|
  • उनकी आखिरी और सबसे महत्वपूर्ण यात्रा वर्ष 1874-75 में की. वह लद्दाख से ल्हासा गये और फिर वहाँ से असम पहुँचे| इस यात्रा में वह ऐसे इलाकोँ से गुजरे जहाँ दुनिया का कोई आदमी अभी तक नहीँ पहुँचा था|
  • भारतीय डाक विभाग ने उनकी उपलब्धि के 139 साल बाद 27 जून 2004 को उन पर डाक टिकट निकाला था|

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