आध्यात्मिक जीवन से सुखी समाज का निर्माण
हम सभी कलियुग में रहते हैं और कलियुग चारों युगों में सबसे ज्यादा तमो गुण प्रधान है। इस युग में सभी अन्धी भौतिकता के पीछे भाग रहे हैं, और अपनी वास्तविक स्थिति को भूलते जा रहे हैं। हम पशु तुल्य जीवन जी रहे हैं और मानव मूल्यों को खोते जा रहे हैं।
हमारा समाज हम से ही मिलकर बनता है, यदि हम शुद्ध हैं तो समाज भी शुद्ध होगा। इसलिए यदि आप एक स्वस्थ समाज का निर्माण करना चाहते हैं तो आपको सर्वप्रथम स्वयं शुद्ध होना पड़ेगा। और आप कैसे शुद्ध हो सकते हैं ?
आध्यात्मिक जीवन जी कर।
तो चलिए जानते हैं कि आध्यात्मिक जीवन से किस प्रकार एक सुखी समाज की स्थापना की जा सकती हैं।
सन्तोषी जीवन –
जब हम आध्यात्मिक जीवन जीते हैं और भक्ति को अपने जीवन का अंग बनाते हैं तो हमारे जीवन से इच्छाओं का धीरे –धीरे लोप होने लगता है। और हमारा सारा ध्यान एक मात्र प्रभु की इच्छा पर ही केन्द्रित होता है। और हमारी इच्छा प्रभु को खुश करने और प्रभु के नाम का जप और कीर्तन करने की होने लगती है।
दूसरे समृद्ध लोगों को देख कर हमारे अन्दर ईष्या का भाव नहीं आता। हमारे पास जो कुछ हैं हम उसी में सन्तुष्ट रहते हैं और उसी से अपने प्रभु की सेवा करते हैं। यदि यह भक्तिमय आध्यात्मिकता समाज में फैल जाये तो लड़ाई-झगड़ा , वैर-भाव , ईष्या ये सभी समाज से विदा हो जायेंगे और एक सन्तोषी सुखी समाज की स्थापना हो सकेगी।
समाज में सहायता का भाव-
जब हम भक्तिमय आध्यात्मिक जीवन जीते हैं तो हम भक्तों का संग करते हैं। और सभी भक्त एक –दूसरे की सहायता करते हैं। और एक-दूसरे को भक्ति में उन्नति करने के लिए उत्साहित करते हैं। इससे हमारे अन्दर निस्वार्थ भाव जन्म लेता है। और हमें मात्र अपना दुख ही नही सभी का दुख नजर आने लगता है। हमारे मन में करूणा उत्पन्न हो जाती है। और हम सभी के कल्याण की भावना मन में रखते हैं। इस प्रकार के भाव ईशा मसीह ने सूली पर चढ़ते समय कहे थे –
“प्रभु ये लोग नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं। इन सभी को क्षमा कर देना।”
तो भक्ति और आध्यात्मिक भाव से समाज में एकरसता की भावना उत्पन्न होगी।
सन्तुलित जीवन –
आध्यात्मिक जीवन सन्तुलित होता है। सुबह ब्रह्ममुहूर्त में उठना, नियमित सन्ध्या करना , जप करना ,अध्ययन करना और प्रभु की सेवा करना। भगवान गीता में कहते हैं –
“युक्ताहार विहारस्य युक्चेष्टस्य कर्मसु”
अर्थात जिनका आहार विहार शुद्ध हैं उनका ही योग सध सकता हैं।
भक्ति योग में इन सभी आहार विहार के नियमें का पालन होता है। इसके पालन से मनुष्य और समाज दोनो ही सन्तुलित होते है।
नई पीढ़ी को शिक्षा –
हमारे बच्चे हमारी नकल करते हैं। जब हम आध्यात्मिक जीवन जियेंगे तो हमारे बच्चे भी हमें देख कर हमारी नकल करके आध्यात्मिक जीवन जियेंगे। और इस तरह हम अपनी आने वाली पीढ़ी को उचित शिक्षा दें सकेंगे। और एक शुद्ध समाज का निर्णाण कर सकेंगे।
समता का भाव –
जब हम आध्यात्मिक साधना का अनुशीलन करते हैं ,तो हम सभी एक समान होते है , बस प्रभु के दास। हमारे अन्दर ऊँच-नीच की भावना नहीं होती है। प्रसिद्ध वैष्णव रामानन्द जी ने कहा हैं-
“हरि को भजैं सो हरि को होई, जाति-पाँति पूछत नहि कोई।”
हम सभी चीज को एक दृष्टि से देखते हैं , एक मात्र ईश्वर की। और सुख-दुख लाभ –हानि सभी में एक समान रहकर बस प्रभु की सेवा करते हैं।
भगवान श्रामद्भगवतगीता में कहते हैं –
“योगस्थः कुरू कर्माणि संगत्यत्वा धञ्ञंजयः।
सिद्धि-असिद्ध समोभूत्वा, समत्वं योग उच्यते।। “
यदि समाज मे आध्यात्मिकता आ जाये तो सभी समता से युक्त हो जायेगें।
अपराध की समाप्ति-
कोई भी व्यक्ति अपराध क्यों करता हैं ? क्योंकि उसको उसमें रस मिलता है। यदि उसको उसमें रस न मिले तो वह उसको क्यों करेगा ?
इसलिए यदि अपराधियों को आध्यात्मिकता का रस मिल जायें और यदि वे इसमें रम जाये तो वे अपराध नही करेंगें क्यों कि अब उनके पास उससे भी अधिक रसपूर्ण वस्तु है और वह हैं ईश्वर।
यदि समाज से अपराध को खत्म करना है तो जेल नही आध्यात्मिकता को अपनाना होगा।
कटु अनुभव का त्याग और प्रभु प्रेम में सराबोर रहना –
भक्तिमय आध्यात्मिकता को अपनाने वाले अपने को –”तृण (तिनका) से भी छोटा और वृक्ष से भी अधिक सहनशील समझते हैं।” यदि कोई उनका अपमान कर देता है या कटु वचन बोलता है तो वे उसे तुरन्त क्षमा कर देते हैं न कि अपने मन में उसके प्रति वैर भावना भर लेते हैं।
वे सदैव प्रभु प्रेम से सराबोर रहते हैं। और बाकी सब को तुच्छ समझ कर उसकी उपेक्षा कर देते हैं। यदि समाज भक्तिमय आध्यात्मिकता को अपनाता है, तो सभी सदैव प्रसन्न रह सकेंगें।
आनन्दमय जीवन –
यदि हम सब भक्तिमय आध्यात्मिकता को अपनाते है तो हम अपने जीवन को आनन्दमय बना सकते हैं। और तभी हम पशुओं से अलग हो सकते हैं और अपनी भौतिक समस्याओं के समाधान खोज सकते हैं।
आध्यात्मिकता हमारे समाज के लिए परमावश्यक है, इसके बिना समाज की उन्नति का दूसरा कोई मार्ग नहीं है।
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