धर्म और आध्यात्म
मैंने अपने जीवन में नयी पीढ़ी के युवक और युवतियों को यह कहते हुए सुना हैं,-” I am not Religious, I am Spiritual “
अर्थात मैं धार्मिक नहीं हूँ पर मैं आध्यात्मिक हूँ। परन्तु जब उनसे यह प्रश्न किया जाता है कि धर्म क्या है और आध्यात्म क्या हैं? तो या तो वे मौन हो जाते हैं या फिर जो बोलते हैं वह धर्म और आध्यात्म की सही व्याख्या नहीं होता है।
इसलिए मैं एक छोटी सी कोशिश करना चाहता हूँ, ताकि हम धर्म और आध्यात्म के विषय को समझ सकें। –
धर्म
धर्म के विषय में कुछ भी कहने से पहले मैं मनुस्मृति का यह श्लोक कहना चाहूँगा –
धृतिःक्षमादमो अस्तेयम् शौचमिन्द्रिय निग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्।।
अर्थात धृति ( धैर्य), क्षमा (क्षमा करना ), दम ( बुरी इच्छाओ का दमन करना ), अस्तेय ( चोरी न करना ), शौच ( शरीर और मन की स्वच्छता ), इन्द्रिय निग्रह (अपने मन तथा इन्द्रियों को अपने वश रखना ), धी ( विवेक ), विद्या ( ज्ञानवान होना ), सत्य ( सत्य बोलना ), अक्रोध ( क्रोध न करना ) ये धर्म के 10 लक्षण हैं।
अगर ये 10 लक्षण आप किसी में भी पायें वह चाहे किसी भी धर्म या किसी भी सम्प्रदाय को मानने वाला हो वह धार्मिक है। यदि ऐसा व्यक्ति जो किसी भी धर्म को नहीं मानता पर उसके अन्दर ये 10 गुण हैं, तो वह भी धार्मिक है।
धर्म को यदि परिभाषित करें तो उसकी परिभाषा होगी-
“यतो अभ्युदयनिः श्रेयसंसिद्धि स धर्मः“।।
अर्थात जिस व्यवहार से इस लोक में उन्नति हो तथा परलोक में भी कल्याण हो अर्थात आत्मा की इतनी उन्नति हो कि वह परम बन जाये। वही धर्म हैं।
धर्म वह हैं जिससे आप अलग न किये जा सकें। जैसे आग का धर्म है जलाना और उससे वह अलग नहीं की जा सकती। उसी प्रकार मनुष्य का धर्म वह है जिसे मनुष्य से अलग न किया जा सके। और वह क्या है ?
वह है प्रेम। क्यों कि मनुष्य बिना प्रेम के नही रह सकता। जीसस क्राइस्ट ने बाईबिल में कहा है-
जैसे मैं तुम लोगो से प्रेम करता हूँ, तुम लोग भी अपने लोगो से उसी प्रकार प्रेम करो। क्यों कि मेरा परमपिता भी मुझसे उसी प्रकार प्रेम करता है।
पैगम्बर मोहम्मद साहब ने भी इस्लाम में सभी से भाई-भाई की तरह व्यवहार करने की बात कही थी।
मेरी बात को यहाँ पर अन्यथा न लें। प्रेम से मेरा तात्पर्य दिव्य प्रेम से है। ईश्वर प्रेम से है, न कि लौकिक प्रेम से। जो भी ईश्वर से प्रेम करना सीख जाता है वह फिर इस संसार में किसी से घृणा नहीं करता। उसके लिए फिर सब ईश्वरमय हो जाता है।
अब अगर धर्म के अंग्रेजी शब्द Religion को अगर हम देखें तो हम पायेंगे कि यह लैटिन भाषा के शब्द Religare से बना है जिसका अर्थ है बाँधना। अर्थात मनुष्य को विभिन्न नियमों में बाँधना। पर क्यों बाँधना ?
क्यों कि मनुष्य अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त कर सके। और वह है सभी दुखों से मुक्त होकर ईश्वर प्रेम को प्राप्त करना।
कोई भी संगठन बिना Regulation के आगे नहीं बढ़ सकता। उसी प्रकार मनुष्य भी बिना Regulation के आगे नही बढ़ सकता और उसे यह Regulation धर्म प्रदान करता है।
श्रीमद्भगवत् गीता के अध्याय -18 के 66 वें श्लोक में भगवान अर्जुन से कहते हैं, –
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।
अर्थात सभी धर्मों को छोड़कर एक मेरी शरण में आओ मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूंगा।
यह बात आज से 5000 साल पहले कही गयी है। तब न ही इस्लाम धर्म था और न ही ईसाई धर्म और न ही अन्य धर्म तो भगवान जब अर्जुन से कहते हैं कि सभी धर्मों को छोड़कर तो इसका क्या अर्थ है, क्यों कि उस समय तो एक मात्र सनातन धर्म था।
इसका अर्थ यह हैं कि तुम अपनी समस्त इच्छाओं और स्वभाव को त्याग कर मेरे शरण हो जाओं। आपका स्वभाव ही आपका धर्म बन जाता है।
तो धर्म इस लोक में और परलोक में कल्याण करने वाला और आपको ईश्वर तक पहुँचाने वाला मार्ग है।
आध्यात्म
आध्यात्म को यदि एक वाक्य में परिभाषित किया जाये तो हम कह सकते हैं –
मन को उस उच्चतम अवस्था पर ले जाना जहाँ से फिर नीचे गिरना सम्भव न हो।
स्वामी राम कृष्ण परमहंस कहते थे –
शुद्ध मन, आत्मा और परमात्मा ये तीनों एक ही चीजें हैं।
श्रीमद्भागवत महापुराण के 11 वें स्कन्द के 23 वें अध्याय में एक तितिक्षु ब्राह्मण की कथा आती है, जिसके सार में यह निकल कर आता है कि –
इस संसार की सारी साधनाओं का एक मात्र फल अपने मन पर नियन्त्रण हो जाना है।
तो आध्यात्म का अर्थ है, अपने मन और इन्द्रियों पर नियन्त्रण स्थापित करके अपने मन को अतिचेतनावस्था पर ले जाना। जिसे समाधि कहते है।
विभिन्न प्रकार की आध्यात्मिक साधनायें मात्र अपने मन और इन्द्रियों को नियन्त्रित करने के लिए और अपने मन को उच्च अवस्था तक ले जाने के लिए ही होती है।
धर्म और आध्यात्म में सम्बन्ध
यदि आध्यात्म चरम लक्ष्य है, तो धर्म वहाँ तक पहुँचने का मार्ग है। यदि आध्यात्म भीतरी साधन है, तो धर्म बाहरी साधन है। आध्यात्म और धर्म एक ही साईकल के दो पहिये की तरह हैं, यदि एक भी खराब होगा तो दूसरे पर प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता।
धर्म और आध्यात्म दोनो ही मनुष्य जीवन के जरूरी भाग है जिनके बिना मनुष्य अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त नही कर सकता|
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